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________________ मथुराके राजा उग्रसेनकी कन्या राजुलमतीका विवाह यदुवंशीय श्रीकृष्ण के बन्धु नेमिनाथके साथ निश्चित किया गया था । अपने विवाह के समय होने वाली पशुहत्याको देखकर अन्तर्मुख बनकर नेमिनाथने दिगम्बर दीक्षा ग्रहण करनेका निश्चय किया । राजुलपतिने मनसे उनके साथ विवाह बद्ध होनेसे दूसरेसे विवाह करना निषिद्ध माना और आर्थिकाकी दीक्षा लेकर अपने पति के मार्ग पर चलनेका निश्चय किया । उसने जैन समाज के सामने यह आदर्श रक्खा है । वैवाहिक जीवनका महत्व विवाह पूर्व अवस्था में स्त्री व पुरुष भिन्न कुटुम्बके प्रतिनिधि होते हैं । विवाहके बाद ही उनके जीवनका पूरी तरह से आरम्भ होता है । आदर्श गृहिणी बनकर सुखद गृहस्थ जीवन निर्माण करना स्त्रीके जीवनका उच्च ध्येय है | आदर्श गृहिणी कुटुम्ब, देश, समाज और कालकी भूषण मानी जाती है । विवाहक बाद स्त्री-पुरुष परस्पर सहकारी होते हैं । गृहस्थाश्रमको स्वीकार कर अपने कुल, धर्म, स्थितिको सोचकर मर्यादित जीवन व्यतीत करना, यही आदर्श पतिका कर्तव्य है । अंशात स्त्री अपने असन्तोषके साथ ही स्वगृहकी शान्ति नष्ट करती है । स्त्रीको शांति, स्नेह, शक्ति, धैर्य, क्षमा, सौन्दर्य और माधुर्यका प्रतीक माना गया है । गृहस्थाश्रममें उसे गृहलक्ष्मी कहकर घरकी सब जिम्मेदारी उस पर सौंप देते हैं । अतिथिका स्वागत करना, धर्मकार्य का पालन करना, सुश्रुषा करना और शिशुपालन – ये तो उसके जीवनके आदर्श माने गये हैं । अनेक जैन महिलाओंने इन आदर्शोंके पालनमें अपने उदाहरण प्रस्तुत किये हैं । उज्जैनी नगरके पहुपाल राजाकी सुशिक्षित कन्या मैना सुन्दरीका विवाह निर्जन वनमें रहने वाले कुष्ठरोगी चंपासुरके नरेश श्रीपाल कोटीभट्ट के साथ किया गया। लेकिन मैनासुन्दरीने इस घटनाके लिये अपनी कर्मगतिको कारण समझकर अपने पति की सेवासुश्रुषा की। अनेक कष्ट शांतिसे सहन किये । पंचाणुव्रत ग्रहण किये । अष्टाकि पर्व के उपोषण करके सिद्ध चक्रकी यथाशक्ति पूजा की। उसके बाद श्रीपालके शरीर पर गंधोदक लगाते ही वह कुष्ठ मुक्त हो गया । अपने सामर्थ्य से उसने अपने राज्यको फिरसे प्राप्त किया । सुखोपभोग किया और वृद्धकालमें राज्यकी जिम्मेदारी अपने लड़केको सौंपकर मुनि दीक्षा ली। मैनासुन्दरीने भी आर्यिका व्रत ग्रहण किया । उसने अपने असामान्य उदाहरणसे जैन महिलाओंके सामने जीवनभर छायाकी तरह पतिके साथ रहना, उसके सुख-दुखमें सहभागी होना, धर्म कार्य में उसका सहकार्य करना, वैभव कालमें उसका आनन्द दुगुना करनेका यत्न करना, पतिकी सखी बनकर उसके जीवनमें चैतन्य निर्माण करना - ये आदर्श रक्खे हैं । पतिनिष्ठा, पवित्रता और सहनशीलता — ये गृहस्थाश्रमीके आदर्श कर्तव्य माने गये हैं । महेन्द्रपुरी - की राजकन्या और पवनकुमारकी पत्नी अजन्ताने विवाहके बाद बारह साल विरह सहन किया । उसके बाद पतिका मिलन उसके जीवनमें आनन्द निर्माण करने वाला था । किन्तु उसपर चारित्रका संशय करके उसको घरसे निकाल दिया गया। बिना सहारे अनेक कष्टोंके साथ सहन-शीलतासे और नीतिधर्मका पालन करके उसने अपना जीवन बिताया जिससे उसे अपना खोया हुआ आनन्द फिरसे प्राप्त हो गया । सीताका आदर्श तो महान आदर्श है । रावण जैसे प्रतापी वैभवसम्पन्न पुरुषके अधीन रहकर भी उसने अपना मन एक क्षण भी विचलित नहीं होने दिया । उसके कारण वह अग्निदिव्य बन सकी । पतिके त्यागने पर भी नमें जीवन बिताते समय उसने रागद्वेषके स्थान पर मधुर हास्य, घबराहटके स्थान पर प्रसन्नता और खेदके स्थान पर उल्लास प्रकट किया, वही उसका आदर्श है । मृगुकच्छ नगर के श्रेणी जिनदत्त नामक धर्मशील श्रावककी सालीको विवाहके बाद घरसे बाहर निकाल दिया गया । तथापि इस अवस्थामें भी उसने - २९६ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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