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________________ जाल फैलाकर उसे बंधित किया है। रसानन्दके पारेको ब्रह्मानन्दके सीनेकी धूलि लगनी ही चाहिये न ? महाकविने शन्यको रंग लगाया है। भक्तके आध्यात्मिक साहसका विवरण करते समय श्री बसवण्णाजीने भी यों कहा है :-'निराकार आत्माको पहले साकार बना लेना चाहिये। इसके लिये प्रतिभा चाहिये। कल्पना विलास चाहिये । आत्माका निकट परिचय होने तक इस कवि कर्मको निरन्तर चलना चाहिये। यह हंसकलोपासनाकी पहली मंजिल है। साधकको रसानन्दमें सराबोर होना चाहिए। खुले आम चित्रको खींचना होगा। यह बात नहीं कि शून्यको रूप देने पर सब कुछ खत्म हो गया। दिये हुए रूपको फिरसे शून्य बनाना चाहिये । इन दोनों कलाओंमें भी हंसकलोपासकको प्रवीण बनना चाहिये । जैसे-जैसे आत्मसाक्षात्कार होता जायेगा, वैसे-वैसे कर्मके कण झड़ते जायेंगे। अप्रत्याशित आक्रमणसे भयभीत होकर कर्मका आवरण ढीला पड़ेगा। छत्तको धुआँ दें, तो जैसे मधुमक्खियाँ लाचार होकर तितरबितर हो जाती हैं, ऐसे ही कर्माणु भी आश्रयहीन हो तड़पने लगेंगे। ___ शून्यके निर्वलय नर्तनको हंसकलोपासकके अन्तरंगमें देखिये । शून्यको आकार देना, दिये हुए आकारको दुबारा शून्य बनाना--ये दोनों हंसकलाके दो मुख हैं। कविको निर्विकल्प समाधिके अनुभवका विवरण ऐसे लोगोंको देना है जिनको सविकल्प समाधिका भी अनुभव नहीं है। बातोंके इन्द्रजालकी शैलीकी टीमटाममें रत्नाकरने हंसकलाकी कई भाव भंगिमाओंको हमारे सामने रक्खा है। जब वह निर्विकल्प समाधिकी चरम सीमा पर पहुँचते हैं, तब कैसा ब्रह्मानन्द होता है ? इसे भी कविने चित्रित किया है। 'बिना सम्पत्ति के बड़ा साहूकार' कहते समय हमारा रोमांच हए बिना नहीं रहता। अपने कल्पना विलाससे दिव्यानुभवके निरुपाधिक सुखको सहृदयियोंके हृदयंगम होनेकी तरह विश्वकविने वणित किया है। जो रसर्षि है, वह विषयसुखको पैरोंसे कूचता हुआ दूसरी तरफ अपना हाथ पसार कर ब्रह्मानन्दको बटोरनेका प्रयत्न करेगा। ध्यानमें निमग्न भरतेशको रत्नाकरने एडीसे चोटी तक चाँदनीसे अलंकृत किया विने मुक्त्यंगनाके बाहुपाशमें चक्रेशको सुखी बनाकर हंसकलाको काव्यकलाकी किरणें पहनायी हैं। कविने ऐसा निरूपित किया है मानों काव्यकला ब्रह्मकलाका बरामदा ही बनी हो । हंसकलाके विविध चरण जब आदिदेव जिनेन्द्रावस्थाको त्याग कर सिद्ध बननेके लिए सनद्ध हआ, तब अन्तिम तपस्या करने लगा। तीनों दोहोंको उतारकर परमात्मा बनने लगा। क्या परमं परंज्योति कोटिचन्द्रादित्य सुज्ञानप्रकाश आदिदेवकी हंसकलोपासना साधारण है ? ज्योतिके योगके जलप्रपातको महाकवि यहाँ निर्माण करेगा । अपने कर्मरूपी संसारको ध्वंस करने, जड़हीन बनानेके पहले आध्यात्मिक तांडवलीलामें लगनेके अद्भुत रम्य दृश्यको चित्रित करनेके लिए कवि रत्नाकरको ही आना पड़ा। परमात्मा लम्बे कदमें व्याप्त होगा। विश्वके नीचेसे ऊपर तक फैलेगा। यह इसके कर्मसम्बन्धी तथा तेज सम्बन्धी शरीरके विश्वव्यापी होते समय दिखाई देनेवाला पहला चरण है। इसको दण्ड कहेंगे। अगला चरण ही कवाटलीला है। भगवान् खुश हुआ मानो सारे विश्वके बीचको दीवार समाप्त की गयी है। वह (परमात्मा) फला अंग न समाया । कार्मण-तैजस शरीरोंको धुनक-धुनक कर आड़ा-आड़ा खींचा। कवाटलीलाको खतम कर तीसरा चरण प्रतरलीलाका प्रारम्भ होता है। वायुको छोड़कर भगवान्के सारे विश्वमें व्याप्त होनेको प्रतर कहते हैं । इसके बाद चौथा चरण पूरणलीला है। समाधिस्थ आदिदेव विश्वव्यापी बनते हैं। वायको भी मिलाकर सारे विश्वको अपने में विलीन कर लेते हैं। सबमें स्वयं रहकर सबको अपने में रखकर सुशोभित होनेवाला विश्वरूप ही समुद्घातोच्चलत्कला है। इस अवसर पर जो आध्यात्मिक रासायनिक क्रिया चलती है, उसका विश्वकविने आँखोंके सामने बीता-सा चित्रण किया है। -- २२३ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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