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________________ हो जमी हुई कर्मराशिको जपसे झाड़ सकते हैं। जब सारे कर्म चले जायेंगे, तब हमारा हंस साम्राज्य अजेय होकर सहजानन्द बनेगा । रत्नाकरने भरतेशकी पूरी जीवनीको हंसकलाका मुलम्मा लगाया है । इसका भरतेश बहिरात्मा नहीं है । यह अन्तरात्मा और रसानन्दमयी है । रत्नाकर एक ऐसा विश्वकवि है जो सभी कलाओंका चित्रण इस प्रकार कर सकता है जैसे सभी कलाएँ आँखोंके सामने ही नर्तन कर रही हों । गूँगेके देखे स्वप्न के समान रहनेवाली आत्मकलाका साहित्यिक वर्णन करके कविने जौहरीसाजी प्रदर्शित की है । आत्मस्वरूप को अपनी प्रतिभामयी मानस संगोत्री के संसर्गसे कल्पना किरणोंसे सजाकर कवि हंसकलोपासनाका उत्स ( शिरोभूषण ) बना है । यह भावलिंगी है । मानसिक संस्कार ही इसकी दृष्टिमें प्रधान है । यह मननके लिए आवश्यक मानसिक परिणाम ही है। इसके बिना केवल शून्य भी नहीं, अरण्य भी नहीं है । रत्नाकरने निराकार आत्माको ज्ञान, प्रकाश व अहंकार प्रदान करके काव्यमय रूपमें निरूपित किया है । प्रारम्भ में यह रेखाचित्र मात्र है । पर उसके आगे वर्णचित्र है । निराकार आत्मस्वरूपके लिए यह उद्गार एक सागर हैं । ज्ञान और ज्योति ये दोनों आत्मविज्ञानके पिछले तथा सामनेके मुखोंके समान हैं । एकको छोड़ दूसरा नहीं रह सकेगा। रत्नाकरके समान हंसकलोपासकको विविध अवस्थाओंका चित्रण करनेवाले विरले ही हैं । आध्यात्म अनिर्वचनीय है । मगर रत्नाकर अनुभवी है, वह साथ-साथ प्रतिभावान भी है। वह कल्पना विलासी भी है । अलौकिक तथा अनिर्वचनीय अनुभवको भी यह काव्यका कवच पहना सकता है । उस पर विमल कलाका रंग चढ़ा सकता है। हंस कलोपासकको भी प्रारम्भ में कल्पना विलास से ही रोमांचित होकर उत्साह पाना होता है। कल्पना घनीभूत होकर रस बनती है। यदि किसीको योगी बनना हो तो पहले उसे रसयोगी बनना पड़ता है। कल्पना पक्षको बढ़ाकर प्रतिभा क्षेत्रको विकसित कर लेना पड़ता है । इसीलिये भरतेश कुसुमाजीके साथ सुरतकेलि खेलनेके उपरान्त आध्यात्मिक विश्राम प्राप्त करनेके लिये कैवल्यांगना को हाथ पसार कर बुलाता है । भरतेश अभी साधक है। वह अपने प्रतिभाने से आत्मसाक्षात्कार कर लेनेको आतुर है। वह अपने कल्पनाहस्तसे सुपारसको सींच-खींच कर अंतरात्माको ढालता है। वह रसलोकविहारी होकर ब्रह्मलोकमें उड़नेको सन्नद्ध हो रहा है। भरतेश अपनी रमणियोंको भी हंसकलोपासनामें प्रेरित करता है । विषयवासनाको रसानन्दसे धो लेना चाहिये । ब्रह्मानन्दको भी यदि रोचक बनना हो, तो उसे साधक के पास रसानन्दका वेष धारण करके आना चाहिये। विषय भूमिकासे साधकको रस भूमिका पर चढ़ना चाहिये । उसके बाद ब्रह्मानन्दकी माताका हृदय बनकर थोड़ा झुक कर साधकको सहारा देकर ऊपरकी ओर खींच लेना चाहिये। जब भरतेशने अपनी आत्मा हो को परमात्मा मानकर निर्भेद भक्तिसे हंसकलोपासना प्रारम्भ की, तब उसके आनन्दका पारावार ही नहीं रहा। आत्मस्वरूप प्रकाश बनकर, सुज्ञान बन कर एवं दर्शन बनकर सुखसे टिमटिमाता है । जैसे बच्चा घुटनो के बल चलते समय उठते-गिरते उत्साहित होता है, ऐसे ही साधक भी इस प्रक्रियामें उत्साहित होगा, विस्मित होगा । कविने हंसकलोपासनाकी इस आँखमिचौनीका भी अपने काव्यमें निरूपण किया है । यह हंसकलोपासना की पहली सीढ़ी है । जब कविका साधक निर्भेद भक्ति में स्थिर होता है, अद्वैत होकर सुशोभित होता है, तब चौंधियानेवाले ब्रह्मानन्दका इन्द्रधनुष देखते ही बनता है। रत्नाकरने ब्रह्मानन्दके अनिर्वचनीय होने पर कलारूपी Jain Education International - २२२ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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