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________________ सांगोपांग परिशीलन कर लेनेसे हजारों विविध प्रतिपाद्योंके भेद-प्रभेदोंका गम्भीर ज्ञान तथा साथ ही भारतीय ज्ञान-गरिमा और सौष्ठवका अन्तरंग परिचय प्राप्त हो सकता है । क्या आगम साहित्य नीरस है ? जर्मन विद्वान् डॉ. विन्टरनित्जने लिखा है - "कुछ अपवादोंके सिवाय जैनों के पवित्र ग्रन्थ धूलकी तरह नीरस, सामान्य और उपदेशात्मक हैं । सामान्य मनुष्योंकी हम उनमें आज तक भी बहुत कम रुचि पाते हैं । इसलिये वे विशेषज्ञोंके लिये ही महत्त्वपूर्ण हैं । वे सामान्य पाठकोंकी रुचिका दावा नहीं कर सकते । डॉ. विन्टरनित्जके इस कथनमें आंशिक सचाई हो सकती है, पर उनके इन विचारोंसे मैं सर्वथा सहमत नहीं हूं । क्योंकि वे विशेषज्ञोंके लिये ही महत्त्वपूर्ण हैं- इन विचारोंका निरसन स्वयं डॉ. विन्टर - निजकी अग्रिम पंक्तियोंसे हो जाता है । आगे उन्होंने लिखा है— जैनोंने हमेशा यह ध्यान रखा है कि उनका साहित्य जनता तक पहुंचे, इसीलिये उन्होंने सैद्धान्तिक ग्रन्थ व प्राचीन साहित्य प्राकृत भाषा में लिखा । अतः वे मात्र विशेषज्ञोंके लिये ही उपयोगी हों, ऐसा नहीं लगता । हाँ प्राकृत भाषाके अध्ययन-अध्यापनकी परम्परा छूट जाने या उसकी लोक भाषाके रूपमें प्रतिष्ठा न रहनेके कारण सामान्य जनताके लिये वे सुगम या सुज्ञेय नहीं रह सके। लेकिन हर युगके मनीषी आचार्यों और विद्वानोंने विशाल आगम-ग्रन्थोंके प्रतिपाद्यको युग भाषामें प्रस्तुत करनेका सदा प्रयत्न किया है । युगप्रधान आचार्य श्री तुलसीके वाचना प्रमुखत्वमें चल रहे आगम- सम्पादनका उपक्रम उसी श्रृङ्खलाकी एक सुदृढ़ कड़ी है । दूसरी बात है नीरसताकी, लेकिन वस्तु स्थिति यह है कि विषयोंकी विविधताके कारण इन्हें पढ़ने में रुचि और ज्ञान- दोनों परिपुष्ट होते हैं । जैन आगम - साहित्य उपमाओं और दृष्टान्तोंसे भरा पड़ा है । देश, काल, क्षेत्र, सभ्यता और संस्कृति के अनुरूप अनेक उपमाएँ व दृष्टान्त प्रचलित होते हैं । इनके प्रयोगसे प्रतिपाद्यमें प्राण भर जाते हैं । वह सहज ही हृदयंगम हो जाता है । आगम-साहित्य में गम्भीर अर्थ भी सुबोध और सरस शैलीमें प्रकट हुआ है। इसमें उपमाओं और दृष्टान्तोंका अनन्य योग रहा है । उत्तराध्ययन एक पवित्र धर्मग्रन्थ है । पर उसमें प्रयुक्त उपमाओंकी बहुलताके कारण ऐसा लगता है, यह कोई काव्य-ग्रन्थ हैं । सम्भव है इसी लिये स्वयं विद्वान् विन्टरनित्जने इसे श्रमण-काव्य कहा है । वे आगे लिखते हैं - जैन आगमों में उदाहरणों और उपमाओंके माध्यमसे सिद्धान्तोंकी बात कहनेका अद्वितीय तरीका दृष्टिगत होता है। उनके इस कथनमें पर्याप्त यथार्थताके दर्शन होते हैं। क्योंकि अनेक स्थलों पर ऐसी व्यावहारिक उपमाओंका प्रयोग हुआ है, जिनके माध्यम से वर्ण्य विषय में सजीवता आ गई है । जैसे—''णाइणं सरइ बाले, इत्थी वा बुद्धगामिणी । " 3 समुद्र तीव्र गति से दौड़ती हुई जहाजको जिसके विशाल पाल बन्धे हैं, कैसी सजीव और विरल उपमासे उपमित किया गया है 1. A History of Indian Literature P. 466 2. P. 443 " ३. सूयगड़ो — ३१।१।१६ Jain Education International " "" " - १९८ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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