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________________ हुआ हो ऐसा नहीं लगता । यहाँ तक कि एक ही ग्रन्थकी शैली में विभिन्न स्थलों पर पर्याप्त अन्तर आ गयीं है । ज्ञाताधर्मकथाके प्रथम अध्ययनको पढ़नेसे लगता है, हम 'कादम्बरी' की गहराईमें गोता लगा रहे हैं । आठवें नौवें और सोलहवें अध्ययनमें आजकी उपन्यास शैलीके बीज प्रस्फुटित होते प्रतीत होते हैं । अन्यत्र एकदम साधारण शैली भी अपनायी गयी है । गद्य भागके बीच या अन्तमें गद्योक्त अर्थको पद्य-संग्रहमें गूंथा गया है। ऐसी शैली उपनिषदोंकी रही है । जैसे प्रश्नोपनिषद्में लिखा है-स एषोऽकलोऽमृतो भवति, तदेष श्लोकः अरा इव रथनाभौ कला यस्मिन् प्रतिष्ठिता। तं वेद्यं पुरुषं वेद (यथा) मा वो मृत्युः परिव्यथाः ।। (प्रश्नो० ६।५।६ ) तुलना करें चउत्थं पयं भवइ, भवइ य इत्थ सिलोगो-पेदेइ हियाणुसासणं सुस्सूसइ तं च पुणो अहिए । नयमाणं--भएणं मज्जइ, विणयसमाही आययट्ठीए ।' अनुष्टुभ या अन्य वत्तों वाले अध्ययनोंके अन्तमें भिन्न छन्द वाले श्लोकोंका प्रयोग कर आगमसाहित्यमें महाकाव्य शैलीका भी संस्पर्श हुआ है। आगम ग्रन्थों छन्दकी दृष्टि से "चरण' में अक्षरोंकी न्यूनाधिकता भी उपलब्ध होती है। वैदिक युगमें भी ऐसा होता था। वहाँ जिस चरणमें एक अक्षर कम अधिक हो उसे क्रमशः निचित और भूरिक कहा जाता है तथा जिस चरणमें दो अक्षर कम या अधिक हो उसे क्रमशः विराज और स्वराज्य कहा जाता है । विषय-वस्तु और व्याख्या आचार्य आर्यरक्षितने व्याख्याकी सुविधाके लिये आगम-ग्रन्थोंको चार अनुयोगोंमें विभक्त कर दिया। जैसे-द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग, गणितानुयोग और धर्मकथानुयोग'। इस वर्गीकरणके पश्चात् अमुकअमुक आगमोंकी व्याख्या अमुक-अमुक दृष्टिकी प्रधानतासे की जाने लगी। वैसे सम्पूर्ण आगम-वाङ्गमय विशद्ध अध्यात्म-धाराका प्रतिनिधित्व और प्रतिपादन करता है फिर भी उसमें अनेकानेक विषयोंकी पूर्ण स्पष्टता और उन्मुक्तताके साथ प्रस्तुति हुई है । आयुर्वेद, ज्योतिष, भूगोल, खगोल, शिल्प, संगीत, स्वप्नविद्या, वाद्य-यन्त्र, युद्ध-सामग्री आदि समग्न विषयोंकी पर्याप्त जानकारी हमें आगमोंसे प्राप्त हो सकती है । एक ही स्थानांगमें कम-से-कम १२०० विषयोंका वर्गीकरण हुआ है। भगवतीसूत्र तो मानों प्राच्यविद्याओंका आकर ग्रन्थ है। विषय वैविध्यकी दष्टिसे विद्वानोंने स्थानांग और भगवतीको विश्वकोष जैसा महत्त्व दिया है। __आगमोंमें ऐसे सार्वभौम सिद्धान्तोंका प्रतिपादन हुआ है, जो आधुनिक विज्ञान-जगत्में मूलभूत सिद्धान्तोंके रूप में स्वीकृत है। जहाँ तक मैंने पढ़ा और जाना है, स्थानांग या भगवती जैसे एक ही अंगका १. दशवकालिक ९।४।२१ २. ऋक् प्रातिशाख्य, पाताल १; "एतन्न्यूनाधिका सैव निवृदूनाधिका भूरिक ।" ३. शौनक ऋक् प्रातिशाख्य, पाताल १७१२ ___ विराजस्तूत्तरस्याहुभ्यां या विषये स्थिताः । स्वराज्यं एवं पूर्वस्य याः काश्चैनं गता ऋच ।। ४. आवश्यककथा, श्लोक १७४ - १९७ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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