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________________ लेखके प्रारम्भमें जो इस श्लोकका अर्थ दिया गया है, उसमें पूर्वाद्ध का अर्थ तो ठीक है, किन्तु उत्तराद्ध का अर्थ ठीक नहीं है। क्योंकि उत्तराद्ध के अर्थमें जो उपवास करके आरम्भका आचरण करना प्रोषधोपवास है, ऐसा बताया है, उसके अनुसार कोई ग्रन्थकार आरम्भ करनेका उपदेश नहीं दे सकता और न ऐसा प्रोषधोपवासका लक्षण कहा जा सकता है । मेरे विचारमें 'सः प्रोषधोपवासो यदुपोष्यारम्भमाचारति' इस उत्तराद्ध के उपोष्यारम्भ पदका अर्थ उपवास-सम्बन्धी आरम्भ-अनुष्ठान लेना चाहिये। योगसारप्राभूत ( अमितगति प्रथम कृत ) के श्लोक १९ अधिकार ८ में आरम्भ शब्दका अर्थ धर्मानुष्ठान दिया है। उपवाससे सम्बद्ध हो जाने पर आरम्भ अपने आप धर्मानुष्ठान हो जाता है। यहाँ उपवास विषयक आरम्भके आचरणको प्रोषधोपवासका लक्षण बताया है । ग्रन्थकारने इस श्लोकमें और इससे पूर्व के तीन श्लोकोंमें जो उपवासविषयक कर्तव्य बताये हैं, वे सब इस उपोष्यारम्भ पदमें आ जाते हैं । इस छोटेसे पदमें उपवास सम्बन्धी सारे क्रियानुष्ठान गभित कर लिये गये हैं, इसीसे इस लक्षणात्मक श्लोकको अन्तमें रखा है। उपोष्यारम्भ पदके द्वारा प्रकारान्तरसे ग्रन्थकारने यह भी सूचित किया है कि यहाँ अन्य सब गार्हस्थिक आरम्भ त्याज्य हैं। सिर्फ आहारका त्याग करना ही उपवास नहीं है, किन्तु लौकिक आरम्भोंका त्याग करना भी साथमें आवश्यक है । ऐसा अन्य ग्रन्थकारोंने भी इस प्रसंगमें लिखा है: ( क ) पुरुषार्थसिद्धयुपाय-मुक्तसमस्तारम्भं ( श्लोक १५२) ( ख ) अमितगति श्रावकाचार-विहाय सर्वमारम्भमसंयमविर्वधकं ( १२।१३० ) सदोपवासं परकर्म मुक्त्वा ( ७७० ), सदनारम्भनिवृत्तैराहारचतुष्टयं सदा हित्वा ( ६-८८ ) (ग) सकलकीर्तिकृत सुदर्शन चरित-त्यक्त्वार भगृहोद्भवं ( २०७२ ) (घ ) रइधू विरचित पासणाह चरिउ-संवरु किज्जइ आरम्भकम्मि ( ५७ ) (ङ) जयसेनृकत धर्मरत्नाकर-आरम्भजलपानाम्यां मुक्तोऽनाहार उच्यते ( १३०८ ) ( च ) रत्नकरण्डश्रावकाचारके श्लोक १०७ में भी उपवासमें आरम्भका त्याग बताया है । उपोष ( उप + उष् ) शब्द उपवासका पर्यायवाची है, इसके आगे योग्य अर्थमें यत् प्रत्यय करने पर उपोष्य बना है। वही यहाँ उपोष्यारम्भ पदमें समझना चाहिये । "उपवास करके" इस अर्थका वाची शब्द यहाँ ग्रहण नहीं करना चाहिये । चचित श्लोकके पूर्वाद्ध में जो प्रोषधका अर्थ ग्रन्थकारने सकृद् मुक्ति दिया है, उसका समर्थन इसी ग्रन्थके 'सामयिकं बहनीयाद् उपवासं' चैक भुक्ते वा' से भी होता है । इसमें बताया है कि एक भुक्ति और उपवास अर्थात प्रोषधोपवासके दिनोंमें सामायिकको दृढ़ करना चाहिये । श्लोकमें जो वा शब्द दिया है, उसका तात्पर्य यह है कि सामायिकको अन्य विशेष दिनोंमें भी दृढ़ किया जाना चाहिये। इस श्लोकमें जो उपवास और एक भुक्ति अलग-अलग पद दिये हैं, वे उपवास और प्रोषध अर्थात् प्रोषधोपवासके वाची हैं। इससे प्रोषधः सकृद् भुक्ति: इस पदका अच्छी तरह समर्थन होता है और यह श्लोक समन्तभद्रकुत ही है, यह सम्यक् सिद्ध होता है । जिन्होंने प्रोषधका अर्थ पर्व किया है, वे ग्रन्थकार प्रोषधोपवास शब्दसे आठ प्रहारका ही उपवास अभिव्यक्त कर सके हैं। १२ और १६ प्रहरके उपवासके लिये उन्हें अतिरिक्त श्लोकोंकी रचना करनी पड़ी है। इसके विपरीत, स्वामी समन्तभद्रने प्रोषधका सकृदभुक्ति अर्थ करके इसके बल पर प्रोषधो - १६० - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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