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________________ श्लोक न० १०९ की उत्थानिकामें जो "प्रोषधोपवासस्तल्लक्षणं कुर्वन्नाह" लिखा है, उसका अर्थ है कि "प्रोषधोपवास" ऐसा जो पद है उसका लक्षण कहते हैं।" इस तरह दोनों उत्थानिका वाक्य अपनी जगह सही है । दोनोंका अर्थ जुदा जुदा है, अतः पुनरुक्तिका आरोप मिथ्या है। (२) श्लोक न० १०६ में 'पर्वण्यष्टम्यांच' पदमें पर्वणी मूल शब्द बताया गया है, यह गलत है । मूल शब्द पर्वन् (नपुंसक लिंग) है उसका सप्तमी विभक्तिके एक वचनमें पर्वणि रूप बनता है जबकि पर्वणी शब्दमें ईकार बड़ा है और वह स्त्रीलिंग शब्द है तथा यह प्रथमा विभक्तिका द्वि वचन है। अगर वह यहाँ होता, तो 'पर्वण्यामष्टम्यां च' ऐसा पद बनता । इसमें छन्दोंभंग ही होता । अतः यह ठीक नहीं है । टीकाकार ने भी मूल शब्द पर्वन् ही माना है और उसी का अर्थ चतुर्दशी किया है। उसी का सप्तमीके एक वचनमें पर्वणि रूप दिया है । (३) श्लोक न० १०९ में जो प्रोपधका अर्थ सकृद्भुक्ति दिया है, उसीके आधारसे टीकाकारने धारणक और पारणकके दिन एकाशन की बात कही है । उनकी यह कोई निजी कल्पना नहीं है । प्रोषधका अर्थ सकृद्भुक्ति अन्य ग्रन्थोंमें नहीं पाये जानेसे ही वह आपत्तिके योग्य नहीं हो सकता । समन्तभद्रके ऐसे बहुतसे प्रयोग है जो अन्य ग्रन्थोंमें नहीं पाये जाते । जैसे : . चेतः कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःश्रतिभवति ॥ ७९ ॥ रत्नकरण्ड श्रावकाचारके इस श्लोक में अवधि शब्द शास्त्र अर्थमें प्रयुक्त किया गया है, यह अनूठा है। (आ) चौथा शिक्षाव्रत वैयावृत्य बताया है और उसीमें अर्हतपूजा को गर्भित किया है (श्लोक ११९)। यह निराला है। (इ) श्लोक क्रमांक ९७ के आसमयमुक्तिमुक्तं पदमें आये समय शब्दकी जो व्याख्या श्लोक ९८, "मूर्धरुहमु ष्टिवासो बन्धं पर्यंकबन्धनं चापि। स्थानमुपवेशनं वा समयं जानन्ति समयज्ञाः," में की गई है,। वैसी अन्यत्र नहीं पाई जाती। (ई) श्लोक न० २४ में गुरुमढ़ताके लिये पाखण्डिमोहनम् शब्द का प्रयोग भी अद्वितीय है। (उ) श्लोक नं० १४७ में मुनिवन, भैक्ष्याशन, चेल, खण्डधर आदि कथन भी अनुपम हैं। (ऊ) स्वयंभूस्तोत्रमें चारित्रके लिये उपेक्षा शब्दका प्रयोग श्लोक ९० में किया गया है । (ऋ) आज सामायिक शब्दका ही प्रचार है, किन्तु इस अर्थमें रत्नकरण्डश्रावकाचारमें सर्वत्र सामयिक शब्दका ही प्रयोग किया गया है, कहीं भी सामायिक शब्दका नहीं । यह भी एक विशेषता है । ( ४ ) श्लोक १०९ प्रौषधप्रतिमाके श्लोक १४० के विरुद्ध बताया जाता है, यह भी ठीक नहीं है क्योंकि प्रोषधप्रतिमाके श्लोकमें जो प्रोषधनियम विधायी पद दिया है, उसके नियम शब्दके अन्तर्गत श्लोक १०६ से ११० तकका सारा प्रोषधोपवास का कथन आ जाता है। अतः यह श्लोक १०९ किसी तरह विरुद्ध नहीं पड़ता, अपितु उसका पूरक ठहरता है । अब मैं श्लोक १०९ के अर्थ पर आता है। आज तक इस श्लोकका पूरा वास्तविक अर्थ सामने न आ पानेसे यह श्लोक लोगोंको कुछ अटपटा सा लगता है । मैंने इस पूरे श्लोकका जो अर्थ निश्चित किया है, वह इस प्रकार है, विद्वान् इस पर गम्भीरतासे विचार करें : इस श्लोकमें कोई भी पाठान्तर नहीं पाया गया है। सिर्फ कार्तिकेयानुप्रक्षा की संस्कृत टीकामें शुभचन्द्राचार्यने इसके चतुराहारविसर्जन पदकी जगह चतराहारविवर्जन पद दिया है, जो सामान्य शब्द भेदको लिये हये हैं, किसी अर्थ भेदको लिये हुए नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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