SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बोधकथा कहां तक आपका शासन व अधिकार ? नेमीचंद्र पगेरया, बंबई उन दिनों मिथिलामें राजा जनकका राज्य था । राजा जनक अपनी न्याय प्रियता और धर्म प्रमके लिये दूर दूर तक प्रसिद्ध थे। वे वैराग्य और निस्पृहिताके आदर्श माने जाते थे। अपनी देह तकको वे पर जानते थे और उसके प्रति भी उदासीन रहते थे। इसी कारण विद्वान उन्हें विदेह सम्बोधित कर बहुसम्मान किया करते थे । वास्तवमें, वे घरमें ही वैरागकी जीवित मूर्ति थे। उनके राज्यमें चार विद्यापीठ व अनेक गुरुकुल थे। एक समय दो गुरुकुलोंके ब्रह्मचारियोंमें आपसमें वाद-विवाद हुआ, फिर हाथापाई और मारपीट होने लगी। अन्तमें एक गुरुकुलके स्थानको क्षति करनेकी शिकायत राज-अधिकारियों तक पहुँची । फलतः उनके एक प्रमुख नेता वटुको आरक्षणने कैदकर राजा जनकके सामने प्रस्तुत किया। जब उस नयुवक निर्भीक वटुने कथित आरोप स्वीकार किया, तो राजा जनकने उसे अपने राज्यसे बाहर निकालनेका कड़ा दण्ड सुना दिया। वटु शास्त्रज्ञ भी था। वह विनम्रतासे बोला, "हे राजन्, मुझे पहिले बताइये कि आपका शासन व अधिकार कहाँ तक है जिससे कि मैं उस शासनकी सीमासे परे चला जाऊँ।" दरबारियोंकी दृष्टिमें यह प्रश्न साधारण था, किन्तु राजा जनक असाधारण विद्वान थे और वे सोच समझकर ही उत्तर दिया करते थे। उन्होंने सोचा, तो पाया कि प्रकृतिके जल, थल, नभ, सूर्य, चन्द्र आदि अनेक उनके शासन व अधिकारसे परे हैं । वे सब ए कदम स्वतन्त्र है। फिर सोचा, तो पाया कि उनके भवन, उपवन व कोष धन भी पर है जिसका वर्तन व परिवर्तन उनके अधिकारमें नहीं है। फिर पुरजन, परिजन व स्वजन की बात ही क्या ? वे तो स्पष्ट पर हैं। फिर और भी गहराईमें उतरे, तो पाया कि उनका स्वयंका तन, यौवन और जीवनक्षण भी उनके शासन व अधिकारके घरेमें नहीं है। यह तथ्य जानकर उनका मुखमण्डल गम्भीर हो गया। फिर वटुसे धीरे बोले, "हे विद्वान् वटु, तुमने ऐसा प्रश्न पूछा है कि मैं निरुत्तर-सा हो गया हूँ। सच पूछो, तो मेरे शासन और अधिकारमें न कोई भू-कण है और न तुत्छ तृण और न स्वल्प क्षण ही है । इन्हें अपना व अपने शासनका मानना केवल अज्ञान और अहंकार है।" वह वटु विनय पूर्वक बोला, "हे धर्मज्ञ राजन्, आपके प्रत्येक शब्द परमार्थमें डूबे खरे सत्य है, किन्तु मैं तो आपकी दण्ड व्यवस्थाकी प्रतीक्षा में हूँ।" राजा जनक धीरे और गम्भीर वाणी में बोले, "तो सुनो, वटु, तुम अपने गुरुकुल जावो और पठनपाठनमें चित्त दो । बस, याद रखो कि आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् । तुम शान्तिसे अध्ययन चाहते हो, तो दूसरोंके प्रति भी उसके प्रतिकूल आचरण न होने दो।" ___ वह वटु विनयपूर्वक बोला, “हे महाभाग, मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि आपकी आज्ञाका जीवन पर्यंत अक्षरशः पालन करूँगा।" और वह राजाको योग्य नमस्कार कर अपने गुरुकुलकी ओर गया। राजाके ज्ञान-चक्षु वटु के निमित्तसे खुले और वटुकी आचरण दृष्टि राजाके निमित्तसे खुली। सच है-परस्परोपग्रहो जोवानाम् । वही बटु एक दिन मिथिलाका परम विद्वान व राजपुरोहित हुआ। - १५६ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy