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________________ लेखसार जैन मनोविज्ञान प्रो० टी० जी० कालाघाटगी, धारवाड़ (कर्नाटक) जैन मनोविज्ञान को बौद्धिक एवं तार्किक मनोविज्ञान माना जा सकता है। इसका विकास प्रयोगों पर आधारित नहीं है, इसके परिणाम आज के मनोविज्ञान की तुलना में अधिक यथाय तथा मापनीय भले ही न लगें, फिर भी इससे प्राच्य और पाश्चात्य अनेक मनोवैज्ञानिक विचारधाराओं का कुछ साम्य प्रदर्शित किया जा सकता है । जैन मनोविज्ञान का विकास जैन मनीषियों की सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि का परिणाम हैं । 'तवादी जैन दर्शन में जीव को उपयोगमयी बताया गया है। यह ज्ञान-दर्शनात्मक है और अनुभूति का साधन है । यह आधुनिक मनोविज्ञानियों के प्रयोजनवादी 'होम' के समकक्ष है। यह एक शक्ति है जो अनुभव और व्यवहार को निर्धारित करती है। लेकिन उपयोग तो बौद्धिक और आध्यात्मिक प्रक्रिया है। जैन अनुभूति क्रियावृत्ति एवं ज्ञान की श्रृंखला मानते हैं। जीवके अतिरिक्त, जैन अचेतनको भी मानते हैं, जिसका विकास आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक दोनों रूपों में हुआ है। कर्म सिद्धान्त इसका एक रूप है जिसमें कुछ आध्यात्मिकता भी है । हमारे लिए ज्ञान के दो स्रोत है : इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष । शरीर के पाँच संवेदनशील अवयवों के माध्यम से हमें तत्काल साक्षात् ज्ञान होता है। यह ज्ञानावरणी कर्म के क्षय से होता है। इसमें कुछ मानसिक घटक भी कार्यकारी होता है। यह इन्द्रियजन्य ज्ञान अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के रूप में चार चरणों में होता है। हमारे अनुभवों को संगत बनाने में इन चारों चरणों का संयुक्त योगदान रहता है। जैन का कथन है कि इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान सीधा नहीं होता। शुद्ध आत्मा या जीव को ही कर्मपट पूर्णतः दूर होने पर इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही सीधा ज्ञान होता है क्योंकि शुद्ध जीव ज्ञानदर्शनमय है। शुद्ध जीव के ज्ञान को 'अधिसामान्य अवगम' कहते हैं । यह अवधि, मनःपर्यय और केवल के रूप में तीन प्रकार का होता है। अतीन्द्रिय ज्ञान एवं दूरबोध के रूप में अवधि और मनःपर्ययको आज की भाषा में समझा जा सकता है। आठों कर्मों के निराकरण के बाद केवल ज्ञान या सर्वज्ञता प्राप्त होती है। इसके अन्तर्गत सभी पदार्थों की सभी पर्यायों का अन्तान होता है। वर्तमान मनोविज्ञान में इस अन्तान के समकक्ष अभी कोई तथ्य सामने नहीं आया है। - 155 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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