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________________ समयसारके भाष्य आत्मख्यातिकी मुद्रित प्रतियोंमें एक महत्त्वपूर्ण पाठमें एकरूपताको आवश्यकता पण्डित माणिकचन्द्र चवरे, का जा आचार्यश्री कुन्दकुन्दके समयप्राभृत परमागमके अद्भुत भाष्यकार आचार्यश्री अमृतचन्द्रके आत्मख्याति भाष्यके गाथा सप्तक क्रमांक ३९ का ३५५ जो भाष्य मुद्रित नाना प्रतियोंमें प्रकाशित हुआ है, वह लिपिकारोंके प्रमादसे अन्यान्य रूपमें प्रकाशित हुआ है। उस पाठमें एक धारा नहीं रह पायी। आ० अमृतचन्द्र भाववाही समर्पक रचना तथा शब्दरचनाके लिये पूर्ण समर्थ भावप्रभु और भाषाप्रभु रचनाकार हैं। कहीं भी रचनामें शिथिलता या यद्वातद्वा प्रबृत्ति नहीं है। विकल्पके लिये गुजायश ही नहीं है। इनका एकएक शब्द नपा तुला है। पदप्रयोगही नहीं, शब्दप्रयोग, शब्दोंमें अक्षर-प्रयोग तक सूत्ररचनाकी तरह यथास्थान औचित्यपूर्ण ही हैं । भाष्यका निम्नलिखित एक अंश है जिस पाठमें सुधार होकर भविष्यके प्रकाशनोंमें एक धारा और एकरूपता होना नितान्त आवश्यक है । आशा है विज्ञ प्रशस्त अध्यवसायी और पण्डितगण योग्य निर्णय करेंगे। बम्बईकी रायचन्द्र जैन शास्त्रमालासे प्रकाशित और महेन्द्रप्रिंटर्स, सराफा (जबलपुर) द्वारा मुद्रित प्रतिमें पृष्ठ ४३७ पर वह पाठ निम्न प्रकार है : "यथा च स एव शिल्पी चिकीर्षुश्चेष्टानुरूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म करोति, दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मकं चेष्टानुरूपं कर्मफलं भुंक्त च, एकद्रव्यत्वेन ततोऽनन्यत्वे सति तन्मयश्च भवति, ततः परिणामपरिणामिभावेनतत्रैव कर्तृकर्म-भोक्तृभोग्यभोग्यत्वनिश्चयः ।" ___ "तथाऽत्मापि चिकीषुश्चेष्टानुरूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म करोति, दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मक चेष्टानुरूपं कर्मफलं भुंक्ते च, एकद्रव्यत्वेन ततोऽनन्यत्वे सति तन्मयश्च भवति, ततः परिणामपरिणामिभावेन तत्रव कर्तृकर्म-भोक्तभोग्यत्वनिश्चयः ।" बम्बई की इस प्रतिके पहले मुद्रित प्रतियोंमें तथा अनन्तर प्रकाशित प्रतियोंमें यह अंश भिन्न-भिन्न रूपसे मुद्रित होता गया । उन सब प्रकाशनोंकी तालिका पाठकोंके विचारार्थ संलग्न है। इसे पाठभेद कहनेके लिये हिम्मत नहीं होती। यह मूलमें लिपिकारके प्रमादवश ही यह मुद्रण गलत रूपसे चला आ रहा सा प्रतीत होता है। विचार पूर्वक भविष्यके लिये उसमें सुधारको अतीव आवश्यकता है। उसमें सुधार किये बिना अर्थमें पूर्णरूपेण यथार्थता नहीं आ सकती । ध्यान देने योग्य पद हैं : चेष्टारूपं "और चेष्टानुरूपं ।" यह प्रकरण कर्ताके सम्बन्धमें है। वह जो कर्म (क्रिया) करता है और जो जो कर्मफल भोगता है, प्रकारका होता है ? इसे व्यवहार दृष्टि और परमार्थ दृष्टिसे कैसा समझना चाहिये ? यहाँ इसका दृष्टान्तपूर्वक पूर्णरूपेण स्पष्टीकरण किया गया है। कर्ताके द्वारा किया जाने वाला कर्म (क्रिया-व्यापार) जो जो होता है, वह चेष्टारूप होता है या चेष्टानुरूप होता है, इसका सूक्ष्म विचार पूर्वक निर्णय होना आवश्यक है। विचार करनेपर यह स्पष्ट -१४० - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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