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________________ भगवान्ने जो प्रवचन किया, उसको आधार बनाकर गणधरोंने अंगोंकी रचना की। अंगबाह्य की रचना गणधरके बादके आचार्योने की। सर्वार्थसिद्धिमें बारह अंग नामतः गिनाये हैं और अंगबाह्यमें दशवकालिक और उत्तराध्ययनके नामतः गिनाकर आदि कह दिया है। वहाँ दृष्टिवादके पाँच भेद नामतः गिनाकर पूर्वतीके चौदहों भेदोंको नामतः गिनाया है । वक्ताके विषयमें वही बात कही है जो भाष्यमें निर्दिष्ट है और विशेषमें अंगके प्रामाण्यकी सूचना दी है--'तत् प्रमाणं, तत्प्रामाण्यात्' और दसवैकालिक आदिके भी प्रामाण्यको, 'तत् प्रमाणमर्थतस्तदेवेदमिति क्षीरार्णवजलं घटगृहीतमिव' बताया है। इससे स्पष्ट है कि दशवकालिक आदिका भी प्रामाण्य पूज्यपादको मान्य है । आचार्य पूज्यपादने आगमविच्छेदकी कोई चर्चा नहीं की। लेकिन आगमोंमें प्रतिपादित विषयोंको लेकर परम्परा भेद हो गया था, यह आचार्य निम्न कथनसे स्पष्ट होता है : “कवलाभ्यवहारजीविनः केवलिनः, इत्येवमादिवचनं केवलि मांसभक्षणाद्यनवद्याभिधानं श्रुतावर्णवादः" । ६-१३ । स्पष्ट है कि श्वेताम्बरोंकी आगमवाचनामें केवलीके कवलाहारका प्रतिपादन है। उसे केवलीका अवर्णवाद पूज्यपादने बताया है और श्वेताम्बरोंकी आगमवाचनामें मांसाशनकी आपवादिक सम्मति दी गई है, उसे भी श्रुतावर्णवाद आचार्यने माना। इस प्रकार हमें आगमवाचनाके विषयमें मतभेद होनेकी सूचना तो पूज्यपादने दी है किन्तु दशवैकालिक आदि या आचारांग आदिके विच्छेदकी कोई सूचना नहीं दी। स्पष्ट है कि वाचनामें मतभेदका प्रारम्भ है, किन्तु उस मतभेदके कारण आगमको विच्छिन्न मानना अभी शुरू नहीं हुआ है। परिग्रहके कारण पुलाक आदि विरतोंकी निर्ग्रन्थ मानना या नहीं, इस प्रश्नके विषयमें भी पूज्यपाद स्पष्ट है-"त एते पंचापि निर्ग्रन्थाः चारित्रपरिणामस्य प्रकर्षाप्रकर्षभेदे सत्यपि नैगमसंग्रहादिनयापेक्षया सर्वेपि ते निर्ग्रन्था इत्युच्यन्ते" (९-४६) । स्पष्ट है कि आधुनिक कालमें श्वेताम्बर साधुको श्रवक-उपासक कोटिमें जो रखा जाता है, वेसा मत पूज्यपादका नहीं था । यह परिस्थिति बादमें घटित हुई है। इसकी प्रतीति हमें तत्वार्थके अग्रिम सूत्र (९-४७) की सर्वार्थसिद्धिसे भी होती है। वहाँ पुलाक और वकुशकी सामायिक और छेदोपस्थापन चारित्र पूज्यपादने भाष्यकी तरह ही माना है और पूज्यपादने भाष्यके समान ही "भावलिंगं प्रतीत्य सर्वे पंच निर्ग्रन्थाः लिंगिनो भवन्ति, द्रव्यलिंग प्रतीत्य भाज्या।" (९-४७) यह स्वीकार करके परिग्रहधारीको भी भावलिंगीश्रमण निग्रंथ तो माना ही है। स्पष्ट है कि अभी यह मतभेद तीव्र नहीं हुआ जिससे दो सम्प्रदाय स्पष्टरूपसे भिन्न ही माने जावें। आचार्य अकलंकने आचारांग आदि बारह अंगोंके क्या विषय है, इसका विस्तृत वर्णन किया है । उसे पढ़कर यह लगता है कि उनके सम्मुख जो आगम थे, उनकी वाचनामें आज उपलब्ध श्वेताम्बर आगमोंकी वाचनासे पर्याप्त मात्रामें भेद है। उससे यही कल्पना हो सकती है कि आगमोंकी सुरक्षाका और नई नई रचना करनेका जिस प्रकार श्वेताम्बर परम्परामें प्रयत्न हुआ, वैसे कई और भी प्रयत्न हुए होंगे । एक यह भी कल्पनाकी जा सकती है कि जिस प्रकार आधुनिक कालमें अनुपलब्ध दृष्टिवादके विषयोंकी चर्चा परम्परासे या तत्तत देशोंके नामकरणको लेकर प्रतिपाद्य विषयकी चर्चा की जाती है, वैसे ही आचार्य अकलंकने भी किया हो। लेकिन एक बात निश्चित है । अकलंकने भी राजवातिकमें आगमके विच्छेदकी कोई सूचना नहीं दी है। एक ध्यान देनेकी बात आचार्य अकलंकने कही है। यह अंगबाह्य के कालिक-उत्कालिक भेदकी है। ऐसे ही भेद श्वेताम्बर-परम्परामें भी प्रसिद्ध हैं और नंदी आदि सूत्रोंमें उल्लिखित हैं । सर्वार्थ सिद्धिमें इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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