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________________ तत्त्वार्थकी दिगम्बर टीकाओं में आगम और निर्ग्रन्थताकी चर्चा दलसुख मालवणिया ला० द० भारतीय विद्यामन्दिर, अहमदाबाद तत्त्वार्थसूत्र ऐसा ग्रन्थ है जो प्राचीन है और उसकी टीकाएँ कालक्रमसे लिखी गई है । अतएव इस कालक्रममें आगम और निर्ग्रन्थताकी धारणाओंमें किस प्रकार परिवर्तन हुआ तथा इस आधार पर श्वेताम्बर दिगम्बर मतभेद किस प्रकार उत्तरोत्तर बढ़ता गया, इसके जाननेके लिये ये टीकायें उत्तम साधन हैं । यहाँ तत्त्वार्थ की पूज्यपाद से लेकर श्रुतसागर तककी दिगम्बर- टीकाओंके आधारसे इस प्रश्नकी चर्चाकी जाती है जिससे जैनागमोंके प्रामाण्य और उनके विच्छेदके प्रश्न के विषयमें प्रकाश मिलेगा और श्वेताम्बर - दिगम्बरसम्प्रदाय के विषय में अन्य जानकारी भी मिलेगी । यह सामग्री एकत्र करना इसलिये जरूरी है कि अब तक श्वेताम्बर-दिगम्बर-सम्प्रदायका पूरा इतिहास हमारे समक्ष आया नहीं है । यहाँ मैंने एकादशजिने (९-११) और ऐसे अन्य सूत्रोंकी व्याख्याकी चर्चा नहीं की । इस लेखका उद्देश्य सीमित है । अतएव सम्पूर्ण सामग्री देना अभिप्रेत नहीं । केवल साधक रूपसे दोनों सम्प्रदायोंके बीच की खाई किस तरह बढ़ी है, यह दिखाना अभिप्रेत है । केवलि कवलाहार यदि न माना जाय, तो तदनुसार अन्य मान्यता को भी संशोधित करना पड़ता है । उसी कोटिमें एकादश जिने जैसे सूत्र आते हैं । इन सब मतभेदकी चर्चा अन्य विद्वानोंने भी की है, अतएव उसे यहाँ दोहराना अभिप्रेत नहीं है । तत्त्वार्थ सूत्र १.२० में श्रुतं मतिपूर्वं द्वयं नैकद्वादगभेदम् - इतना ही कहा था । इससे स्पष्ट कि तत्त्वार्थ सूत्रकारको आगमके मूल दो भेद --अंग और अंगबाह्य मान्य थे । अंगके बारह और बाह्य के अनेक भेद संमत थे । स्पष्ट है कि उमास्वाति ( भी ) तक आगमकी यह स्थिति थी और उनके समय तक आगमके अस्तित्वकी या प्रामाण्यके विषय में कोई मतभेदकी सूचना हमें प्राप्त नहीं होती । उमास्वाति दिगम्बर हों या श्वेताम्बर, यह विवादका विषय हो सकता है किन्तु उनका तत्त्वार्थसूत्र उभयमान्य प्रमाण ग्रन्थ है, यह तो निश्चित है । यही कारण है कि दोनों परम्पराओंने इसपर टीकायें लिखी हैं और जहाँ परम्परा भेदसे मालूम हुआ, वहाँ टीकाकारोंने अपने मनकी पुष्टि करनेका प्रयत्न भी किया है । टीकाकारोंमें मतभेद हो सकता है किन्तु एक बात ध्यान देने योग्य है कि उक्त आगम-विषयक सूत्रकी व्याख्यामें कोई मतभेद नहीं है । इससे इतना तो सिद्ध होता ही है कि आगमके अंग-अंगबाह्य भेद और उसके सूत्र सूचित उपभेदके विषयमें दोनों परम्पराएँ एकमत हैं । तत्त्वार्थकी भाष्यटीकाके स्वोपज्ञ होने में विवाद है, फिर भी अनेक विद्वान् उसे सर्वार्थसिद्धिसे प्राचीन मानते हैं । उसमें अंगबाह्योंकी गिनती है । सामायिक, चतु विंशतिस्तवं वंदनं, प्रतिक्रमणं, कायव्युत्सर्ग, प्रत्याख्यानं, दशवैकालिक, उत्तराध्यायाः, दशाः, कल्पव्यवहारौ, निशीथं, ऋषिभाषितानि और अन्त में एवमादि लिखा है तो अन्य भी कुछ थे, यह फलित होता है । अंगप्रविष्ट में आचारको लेकर दृष्टिवाद तक बारह अंग गिनाये हैं । उसमें दृष्टिवादके विच्छेदकी कोई सूचना नहीं है । यह भी स्पष्टीकरण है कि - १३५ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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