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________________ जो वर्णन किया गया है, उनमें परमहंस साधकी भाँति अपनी उत्तम चर्या लिए हए आत्म-ज्ञान-ध्यानमें लीन दिगम्बर जैन साधु कहे जाते है । संन्यासीको भी अपने शुद्धरूपमें दिगम्बर बताया गया है । टीकाकारोंने 'अवधूत' का अर्थ दिगम्बर किया है। भर्तृहरिने दिगम्बर मुद्राका महत्त्व बताते हुए यह कामनाकी थी कि मैं इस अवस्थाको कब प्राप्त होऊँगा? क्योंकि दिगम्बरत्त्वके बिना कर्म-जंजालसे मुक्ति प्राप्त करना सम्भव नहीं है। साधना-पद्धति यथार्थमें स्वभावकी आराधनाको साधना कहते हैं। स्वभावकी आराधनाके समय समस्त लौकिक कर्म तथा व्यावहारिक प्रवृत्ति गौण हो जाती है, क्योंकि उसमें राग-द्वेषकी प्रवृत्ति होती है। वास्तवमें प्रवृत्तिका । मूल राग कहा गया है । अतः राग-द्वेषके त्यागका नाम निवृत्ति है। राग-द्वेषका सम्बन्ध बाहरी पर-पदार्थोंसे होनेके कारण उनका भी त्याग किया जाता है, किन्तु त्यागका मूल राग-द्वेष-मोहका अभाव है। जैसे-जैसे यह जीव आत्म-स्वभावमें लीन होता जाता है, वैसे-वैसे धार्मिक क्रिया प्रवृत्ति रूप व्रत-नियमादि सहज ही छूटते जाते हैं । साधक दशामें साधु जिन मूल गुणों तथा उत्तर गुणोंको साध्यके निमित्त समझकर पूर्वमें अंगीकार करता है, व्यवहारमें उनका पालन करता हुआ भी उनसे साक्षात् मोक्षकी प्राप्ति नही मानता । इसीलिए कहा गया है कि व्यवहारमें बन्ध होता है और स्वभावमें लीन होनेसे मोक्ष होता है। इसीलिए स्वभावकी आराधनाके समय व्यहारको गौण कर देना चाहिए। जिनकी व्यवहारकी ही एकान्त मान्यता है, वे सुखदुखादि कर्मोसे छूट कर कभी सच्चे सुखको उपलब्ध नहीं होते। क्योंकि व्यवहार पर-पदार्थोके आश्रयसे होता है और उनके ही आश्रयसे राग-द्वषके भाव होते हैं। परन्तु परमार्थ निज आत्माश्रित है, इसलिए कर्म-प्रवृत्ति छुड़ानेके लिए परमार्थका उपदेश दिया गया है। व्यवहारका आश्रय तो अभव्य जीव भी ग्रहण करते हैं। व्रत, समिति, गुप्ति, तप और शीलका पालन करते हुए भी वे सदा मोही, अज्ञानी बने रहते हैं । जो ऐसा मानते हैं कि पर-पदा जीवमें राग-द्वेष उत्पन्न करते हैं, तो यह अज्ञान है। क्योंकि आत्माके उत्पन्न होनेवाले रागद्वेषका कारण अपने ही अशुद्ध परिणाम हैं, अन्य द्रव्य तो निमित्तमात्र हैं। परमार्थमें अत्मा अनन्त शक्ति सम्पन्न चैतन्य निमित्त की अपेक्षा मात्र नित्य, अभेद एक रूप है। उसमें ऐसी स्वच्छता है कि दर्पणकी भाँति जब जैसा निमित्त मिलता है वैसा स्वयं परिणमन करता है, उसको अन्य कोई परिणमाता नहीं है। किन्तु जिनको आत्मस्वरूपका ज्ञान नहीं है, वे ऐसा मानते हैं कि आत्माको परद्रव्य जैसा यह परिणमन करता है । यह मान्यता अज्ञानपूर्ण है क्योंकि जिसे कार्य के पुरुषार्थका पता होगा, वही अन्य द्रव्यकी १. “संन्यासः षड्विधो भवति-कुटिचक्रं बहुदकहंस परमहंस तुरीयातीत अवधूश्रुति ।-संन्यासोपनिषद्,१३ तुरीयातीत–सर्वत्यागी तुरीयातीतो गोमुखवृत्या फलाहारी चेति गृहत्यागी देहमात्रावशिष्टो दिगम्बरः कुणपवच्छरीरवृत्तिकः । २. एकाकी निस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः । कदा शम्भो भविष्यामि कर्मनिर्मलनक्षमः ॥ वैराग्यशतक, ५८, वि० सं० १९८२ का संस्करण ३. ववहारादो बंधो मोक्खो जम्हा सहावसंजुत्तो। तम्हा कुरु तं गउणं सहावमाराहणाकाले । नयचक्र, गा० २४२ ४. वदसमिदीगुत्तिओ सीलतवं जिणवरेहि पण्णत्तं । कुव्वतो वि अभव्वो अण्णाणी मिच्छदिट्ठी दु ।। समयसार, गा०२७३ - १२६ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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