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________________ संख्या सामान्यतः छह मानी गई है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने मूलगुणोंकी संख्या पाँच और छह दोनोंका उल्लेख किया है सम्यक्त्वसे सहित पाँच महाव्रतोंको उन्होंने पाँच मूलगुण कहा है। इन पाँच महावतोंके साथ रात्रिभोजन-विरमण मिलाकर मूलगणोंकी संख्या छह कही जाती है। ___ वास्तवमें जैन साधु-सन्तोंका सच्चा स्वरूप दिगम्बर मुद्रामें विराजित वीतरागतामें ही लक्षित होता है । अतएव सभी भारतीय सम्प्रदायोंमें समानान्तर रूपसे दिगम्बरत्वका महत्त्व किसी-न-किसी रूप में स्वीकार किया गया है। योगियोंमें परमहंस साधुओंका स्थान सर्वश्रेष्ठ समझा जाता है । आजीवक श्रमण नग्न रूपमें ही विहार करते थे। इसी प्रकार हिन्दुओंके कापालिक साधु नागा ही होते हैं जो आज भी विद्यमान हैं । यह परम्परा अत्यन्त प्राचीन मानी जाती है । भारतीय सन्तोंकी परम्परा वैदिक और श्रमण-इन दो रूपोंमें अत्यन्त प्राचीन कालसे प्रवाहित रही है। इसे ही हम दूसरे शब्दोंमें ऋषि-परम्परा तथा मुनि-परम्परा कह सकते हैं । मुनि-परम्परा आध्यात्मिक रही है जिसका सभी प्रकारसे आर्हत संस्कृतिसे सम्बन्ध रहा है। ऋषि-परम्परा वेदोंको प्रमाण माननेवाली पूर्णतः बार्हत रही है। श्रमण मुनि वस्तु-स्वरूपके विज्ञानी तथा आत्म-धर्मके उपदेष्टा रहे हैं। आत्म-धर्मकी साधनाके बिना कोई सच्चा श्रमण नहीं हो सकता। श्रमणपरम्पराके कारण ब्राह्मण धर्ममें वानप्रस्थ और संन्यासको प्रश्रय मिला । जैनधर्ममें प्रारम्भसे ही वानप्रस्थके रूपमें ऐलक, क्षुल्लक (लंगोटी धारण करने वाले) साधकोंका वर्ग दिगम्बर-परम्परामें प्रचलित रहा है। संन्यासीके रूपमें पूर्ण नग्न साधु ही मान्य रहे हैं । केवल जैन साहित्यमें ही नहीं, वेद, उपनिषद्, पुराणादि साहित्यमें भी श्रमण-संस्कृतिके पुरस्कर्ता 'श्रमण'का उल्लेख तपस्वीके रूपमें परिलक्षित होता है। इन उल्लेखोंके आधारपर जैनधर्म के मतकी प्राचीनताका निश्चित होता है। इतना ही नहीं, इस काल-चक्रकी धारामें अभिमत प्रथम तीर्थकर ऋषभदेवका भी सादर उल्लेख वैदिक वाङ्मय तथा हिन्दू पुराणोंमें मिलता है । अतएव इनकी प्रामाणिकतामें कोई सन्देह नहीं है। पुराण-साहित्यके अध्ययनसे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि भिक्षुओंके पाँच महाव्रत या यम सर्वमान्य थे। 'जाबालोपनिषद्'का यह वर्णन भी ध्यान देने योग्य है कि निर्ग्रन्थ, निष्परिग्रही, नग्नदिगम्बर साधु ब्रह्म मार्गमें संलग्न है। उपनिषद्-साहित्यमें 'तुरीयातीत' अर्थात् सर्वत्यागी संन्यासियोंका १. विशेषावश्यक भाष्य, गा० १८२९ २. सम्मत्त समेयाई महव्वयाणुव्वयाई मूलगुणा । वही, गा. १२४४ ३. डा० वासुदेवशरण अग्रवाल : जैन साहित्यका इतिहास, पूर्व पीठिकासे उद्धृत, पृ० १३ ४. "तृदिला अतृदिलासो अद्रयो श्रमणा अशृथिता अमृत्यवः ।'-ऋग्वेद, १०, ९४, ११ "श्रमणो श्रमणस्तापतो तापसो...." बृहदारण्यक, ४, ३, २२ । "वातरशना ह वा ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्वमन्थिनो बभूव"-तैत्तिरीय आरण्यक, २ प्रपाठक, ७ अनुवाक, १-२तथा-तैत्तरीयोपनिषद २, ७ "वातरशना य ऋषयः श्रमणा उर्ध्वमन्थिनः।"-श्रीमदभागवत ११, ६, ४७ "यत्र लोका न लोकाः....श्रमणो न श्रमणस्तापसो।"-ब्रह्मोपनिषद् "आत्मारामाः समदृशः प्रायशः श्रमणाः जनाः ।"--श्रीमद्भागवत १२, ३, १८ ५. अस्तेयं ब्रह्मचर्यञ्च अलोभस्त्याग एव च । व्रतानि पंच भिक्षणामहिंसा परमात्विह ।। लिंगपराण. ८९. २४ ६. "यथाजातरूपधरो निर्ग्रन्थो निष्परिग्रहस्तत्तद् ब्रह्ममार्गे...."-जाबालोपनिषद्, पृ० २६० - १२५ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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