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________________ न्यायशास्त्र, विज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीति तथा अन्य विषयोंके क्षेत्रमें भी अनेक विद्वान शोधकार्य कर रहे हैं । इससे अनेक परिभाषाओं और मान्यताओं पर पुनर्विचारकी आवश्यकताका भी अनुभव किया जा रहा है । इस खण्डके लेखकोंने बड़ी ही महत्त्वपूर्ण प्रेरक एवं समीक्षापूर्ण सामग्री देकर सम्पादक मण्डलको उपकृत किया है । हमारा विश्वास है कि किसी भी ऐसी नयी कृतिमें इस प्रकारका खण्ड अवश्य रहना चाहिए जो हमारे लिए भविष्यका दिग्दर्शक बने । विदेशों में जैनविद्याएँ नामक सातवाँ खण्ड और भी महत्त्वपूर्ण है। इसमें फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, अमेरिका, फिनलैंड तथा अन्य देशोंमें जैनविद्याओंके अध्ययनकी एक झाँकी दी गई है । इससे ज्ञात होता है कि विदेशों में अधिकांशतः श्वेताम्बर - साहित्य पर ही अध्ययन किया गया है। इसका कारण सम्भवतः यह है कि विदेशों में दिगम्बर-साहित्य इस सदीके पूर्वार्ध तक पहुँच नहीं पाया। इस साहित्यके सुलभ करनेकी प्रक्रिया तीव्र की जानी चाहिए । यद्यपि इस दिशा में जैनमिशन और राजकृष्ण चैरिटेबल ट्रस्टका कार्य प्रेरणास्पद है, तथापि उसमें कई गुनी वृद्धिकी आवश्यकता है । यह प्रसन्नताकी बात है कि अब विदेशों में साहित्य के अतिरिक्त धार्मिक सिद्धान्तों एवं न्यायशास्त्र पर भी कुछ काम होने लगा । इसके लिए समुचित आर्थिक सुविधाओंको जुटाने तथा आवश्यक साहित्य - प्रसारकी महती आवश्यकता है। हम इस खंडमें कुछ और विदेशी विद्वानोंके लेख देना चाहते थे, पर हमारी सीमाओंने हमें विवश कर दिया । हमने इस अभिनन्दन ग्रन्थ में प्रकाशित सामग्री के चयन में यह प्रयास किया है कि यह उपयोगी, सारवान् एवं ज्ञानदीपको प्रकाशित करनेवाले वायुके समकक्ष हो । इसके लेखोंमें बीसवीं सदीकी तुलनात्मक और समीक्षात्मक दृष्टि मुख्य रही है । यही दृष्टि ज्ञानके क्षेत्रको विकास एवं संवर्धनके नये आयाम देती है एवं हमें अन्वेषण की ओर प्रवृत्त करती है । यही हमारी ज्ञानपिपासाका साध्य है । इस उत्कृष्ट साध्य के लिए समुचित कारक प्रस्तुत करनेकी प्रक्रिया ही विद्वान्‌का साध्य और अभिनन्दन है । इस साध्यकी पूर्ति में विचारोंकी भिन्नता उनके विकासकी प्रक्रियामें ही सहायक होती है। यह सम्भव नहीं है कि सम्पादकमण्डल लेखकोंके सभी विचारोंसे सहमत हो, फिर भी उन्हें प्रकाशित कर वह अन्य विद्वानों को उनके समुचित परीक्षण के लिए प्रेरित करना चाहता है । सम्पादक मण्डलके कार्य में जिन सम्मान्य लेखकों, गुरुजनों एवं सन्तोंने सहयोग किया है, उसके लिए वह सभीका आभारी है । उनके सहयोग के बिना हमारा यह गुरुतर कार्य मूर्तरूप ही कैसे ले सकता था ! इस अवसर पर हम उन सहयोगियोंसे क्षमा-याचना भी करना चाहते हैं जिनकी कृतियोंको हम इसमें, अपनी सीमाओंके कारण, समाहित नहीं कर सके । हम सभी सम्पादन परामर्शदाताओं एवं प्रबन्ध-सम्पादकके भी आभारी हैं जो निरन्तर मार्गदर्शन और प्रेरक सुझाव देते रहे हैं । हम प्रबन्ध समिति के सदस्योंके ऋणी हैं जिन्होंने मंडल पर पूर्ण विश्वास किया और उसके कार्य में सभी प्रकारकी सुविधाएँ प्रदान कीं । हम महावीर प्रेस के व्यवस्थापक, आचार्य कपिलदेव गिरि एम० ए०, टंकक द्वय तथा सम्पादन कार्य में सहयोगी कु० प्रतिमा जैन एम० ए० तथा प्रमोद दुबेके प्रति भी अपना आभार व्यक्त करते हैं । अन्तमें, मैं डॉ० नन्दलाल जैनका नाम लिये बिना भी नहीं रह सकता जिन्होंने ग्रन्थ में अभिनवता एवं नवीनता लानेके लिए अथक श्रम किथा है । अनेक प्रकारकी सावधानीके बावजूद भी मुद्रण कार्य में त्रुटि रह जाना स्वाभाविक है । इनके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं । हम यह आशा करते हैं कि पाठक उन्हें सुधार कर पढ़ेंगे और हमें भी विभिन्न अपूर्णताओं की सूचना देंगे । B. 3 / 115 शिवाला, काशी १२-१०-८० Jain Education International } - १३ - भागीरथप्रसाद त्रिपाठी, 'वागीश शास्त्री' कृते सम्पादक मण्डल For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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