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________________ विद्वान् भी उपस्थित थे । जबलपुरमें भी क्षेत्रीय स्याद्वादियोंने उनको एक अभिनन्दनपत्र समर्पित कर अपनेको कृतार्थ किया था । एक ओर जहाँ क्षेत्रीय शिष्यमण्डली अपने विद्यागुरुके कारण गौरवका अनुभव करती है, वहीं पण्डितजी भी समय - समयपर इस क्षेत्रके स्याद्वाद स्नातकोंके प्रति अपने भावभीने उद्गार व्यक्त करते रहते हैं । पूज्य वर्णीजी समाधिमरणके समय वे वहाँ उपस्थित थे । उस समय उन्होंने अपने जीवनके लिये एक परमावश्यक व्रत ग्रहण किया था - लौकिक कल्याणके साथ ही पारलौकिक कल्याणके हेतु भी समाज की मनोभूमि विशुद्ध करनेके लिए पूज्य वर्णीजीके उपदेशोंको और अधिक रूपमें प्रचारित करनेका व्रत लिया था । तभीसे बुन्देलखण्डमें उनके आवागमनकी वारम्वारता कुछ बढ़ गयी । वर्णीजीने एक समय पण्डितजी से कहा था, जब तक संस्थामें एक रुपयेका भी फण्ड रहे और जब तक एक भी छात्र रहे, तब तक आप विद्यालय चलाते रहें । वर्णीजी द्वारा सौंपा गया यह उत्तरदायित्व व आजतक निभा रहे हैं। यह उन जैसे समर्थ व्यक्तित्वका ही काम है जिससे हमारे क्षेत्रीय लोग लाभान्वित हो रहे हैं । इन्हें ही सम्बोधित करते हुए पण्डितजीने एकबार द्रोणगिरमें कहा था, "मैने अपने जीवनमें अभी तक अनेक जगह अभिनन्दनके कार्यक्रम देखे हैं, मेरे भी हुए हैं । परन्तु यह जो अभिनन्दन बुन्देलखण्ड के छात्रों द्वारा आयोजित हुआ है, वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । गुरुके प्रति जो निष्ठा मैने बुन्देलखण्ड के छात्रोंमें देखी, वह अन्यत्र देखनेमें नहीं आई । लघु सम्मेदशिखर कहे जानेवाले द्रोणगिरमें यह सम्मान निश्चय ही महत्वपूर्ण है । मेरी मान्यता है कि ऐसे सम्मान मेरे या किसी व्यक्तिके न होकर विद्वत्तामा के प्रति होने चाहिये । द्रोणगिरिकी तपोभूमि वर्णी वाणीके प्रचारके लिये सर्वाधिक उपयुक्त है । आप सभी स्नातक द्रोणगिरिके विद्यालयको समर्थ बनावें और यहाँके छात्रों को पढ़नेकी प्रेरणा और साधन देते रहें । यही मेरा आपसे विनम्र अनुरोध है ।” इन उद्गारोंसे स्पष्ट है कि एक ओर पण्डितजी इस क्षेत्रके स्नातकोंको गुरुनिष्ठासे सन्तुष्ट हैं, वहीं वे इस बात पर किंचित् उद्विग्न भी हैं कि द्रोणगिरिका विद्यालय दम तोड़ रहा है । इस विद्यालयको जीवनदान देनेकी उनकी प्रेरणा यह संकेत देती है कि इस विद्यालयके लिये उनके समान ही कोई जीवनदानी इस क्षेत्र में होना चाहिये जो इस तपोभूमिको विद्याभूमि बना सके और इसको प्रकाशित कर सके । क्या बुन्देलखण्डके स्नातक अपने गुरुकी इस प्रेरणाको मूर्तरूप दे सकेंगे ? Jain Education International - ८५ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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