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________________ स्याद्वादके तत्कालीन विद्यार्थियोंको ऐसा लगने लगा था कि संस्कृत शिक्षा इतनी हेय कि हमारे गुरुजनोंकी संतति उससे दूर ही रखी जा रही है । सामान्यतः यह भी मान्यता रही है कि इस क्षेत्रके लोग निर्धन हैं और विद्यालय में मुख्यतः निशुल्क व्यवस्थायें होनेसे ही प्रायः यहाँके लोग जाते हैं । इसलिये संस्कृत शिक्षा असमर्थीकी शिक्षा मानी गई। चूँकि हमारे गुरुजन तुलनात्मकतः समर्थ रहे हैं, अतः वे अपनी संततियोंको असमर्थोंको दी जाने वाली शिक्षा क्यों दिलायें । एक ओर हमें संस्कृत शिक्षा के माध्यम से शिक्षाकी अर्थकरता प्रति उदासीन बनाया जा रहा था, वहीं दूसरी ओर व्यक्तिगत जीवनमें हमारे गुरु मात्र अर्थकरी शिक्षा के पोषक हो रहे थे । इस स्थितिमें उस समयके स्याद्वादी विद्यार्थियोंमें निश्चित ही अपनी निर्धनताका बोध हुआ था । और वे भी अपनी पूर्वकर्मोपार्जित नीच गोत्रकी प्रकृतिको काशीमें भस्मकर उच्चगोत्री बननेकी दिशामें सोचने लगे थे । विद्यालयके गुरु और प्रशासक होनेके नाते इस समस्या के उदारता पूर्वक समापन में जो रुचि विद्यार्थियोंने अपेक्षितकी थी, उसके दर्शन अनेक वर्षों बाद ही हो सके जब विद्यालय में प्रवेश चाहने वालोंकी संख्यामें कमी होने लगी । विद्यालयके विद्यार्थियोके लिए इस नीतिक परिवर्तनमें पूज्य बाबा वर्णीजीका योगदान भी भुलाया नहीं जा सकता । वे स्वयं बुन्देलखण्ड के थे और उन्हें अपने ही क्षेत्र विद्यार्थियोंसे अपार प्रेम था । प्रारम्भमें तो वे भी इस नई दिशाको माननेकी दिशा में आनेवाली अनेक तथाकथित आशंकाओंसे परेशान हुये थे पर उन्होंने वर्तमानकी तुलना में उज्ज्वल भविष्यकी आभाको अधिक महत्व दिया । और उसके बाद विद्यालय प्रशासन उदारतापूर्वक धार्मिक शिक्षाके साथ लोकिक शिक्षाके लिए अनुज्ञा दी । भाग्यसे, उसी समय पूर्ति छात्रवृत्ति की योजना चली जिसमें दोनों प्रकारकी शिक्षा लेनेवालेको छात्रवृत्ति दी जाती थी । छात्रवृत्तिका प्रायः पूरा अंश ही विद्यालय में ऐसे छात्रोंको निशुल्कताकी सुविधासे वंचित करनेका दण्ड देकर प्राप्त किया । फलतः दोनों दिशाओंकी शिक्षा लेने वाले विद्यार्थी विद्यालयके परोक्ष सहायक भी बने । अब तो संस्कृत विश्वविद्यालयने भी अपने पाठ्यक्रमोंका आधुनिकीकरण कर दिया हैं । फलतः यह समस्या ही नहीं रही । उपरोक्त नीति परिवर्तनको प्रक्रियामें अनेक छात्रोंने भाग लिया था और प्रारम्भ में विद्यालय प्रशासन संभवतः उनसे ही समझिये कि इन विद्रोही विद्यार्थियोंको निर्दण्ड ही प्रसन्नता है कि मेरी पीढ़ी उन्हीं दिनोंकी है और मेरे उत्तरवर्ती वर्षोंके लगभग दस वर्षोंके समय में विद्यालयसे जो खिन्न भी रहा । पर इसे पण्डितजीकी उदारता विद्यालय में रहने दिया गया । मुझे इस बातकी विद्यार्थी जीवन कालके कुछ पूर्ववर्ती और कुछ उभयथा प्रशिक्षित वर्ग निकला, उसका बहुभाग • आज समाजका विभिन्न क्षेत्रों में अग्रणी बना हुआ है । यद्यपि उनमेंसे कुछ तो केवल अग्रणी अर्थंकर ही रह गये हैं । उनका सामाजिक दृष्टिकोण विशुद्ध व्यक्तिवादमें सीमित हो गया है । इनको उच्च गोत्री प्रकृतिका बन्ध हो गया है । मुझे ऐसा लगता है कि इस नये अर्थकरी शिक्षा ग्राहक वर्गने पण्डितजीको कुछ निराशा तो दी होगी, पर वे उस पीढ़ीसे पूर्णतः निराश हों, ऐसा सोचना किंचित् दुःसाहस ही होगा । इस पीढ़ी अनेक लोग न केवल भारत में ही, अपितु विदेशोंमें भी काशी और 'स्याद्वाद' की कीर्ति- पताका फहरा रहे हैं और जैन संस्कृतिको नव संस्कृत भाषामें प्रसारित कर रहे हैं । यह एक प्रकरण जब बुन्देलखण्ड के विद्यार्थियोंने अपने गुरुवरका गम्भीर मौन देखा और उनकी अन्तः सहानुभूति पाई। उनका यह अन्तरंग आशीर्वाद हमपर आज तक अविरतसे छाया हुआ । यही हमें उनके उपकारोंको अविस्मरणीय बताता है । बुन्देलखण्डके स्याद्वादी स्नातकोंने अनेक अवसरोंपर अपनी कृतज्ञताको व्यक्त करनेके लिए अपने गुरुवरको अभिनन्दित किया है । द्रोणगिरमें तो उन्हें विद्यावारिधि का उपाधि भी विभूषित किया गया । यहीं उनका एक अभिनन्दन १९५५ में भी किया गया था जब वहाँ बीस वर्षकी गजरथ विहीन समाजका प्रथम गजरथोत्सव आयोजित हुआ था । उस समारोहमें अनेक विदेशी Jain Education International - ८४ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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