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________________ विद्वानोंके लिए अत्यन्त कष्टकर होता जा रहा है। संभवतः इस स्थितिका उपचार भी विद्वान् ही कर सकते हैं। समितिका मत है कि विद्वान्की गरिमा उसकी समाजसेवा, धर्मप्रचार और तर्कसंगत व्याख्या करनेकी क्षमतासे ही अंकित होती है। व्याख्याभिन्नता विद्वान्की प्रतिष्ठा या अप्रतिष्ठाका कारण मानना अनेकान्ती जैनोंके लिए शुभवृत्ति नहीं मानी जा सकती। निद्वान् समाजका मार्गदर्शक हैं, उसकी संस्कृतिका संरक्षक और प्रकाशक है । उसको विद्वत्ता सम्पूर्ण समाज की धरोहर है । पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्रीकी कोटि निश्चित रूपसे इन सभी निकषों पर खरी उतरती है। उनके अभिनन्दनसे समितिको गौरवका अनुभव हो रहा है। समिति अपने सम्पादन परामर्शदाताओं तथा सम्पादकमण्डलके प्रति आभार व्यक्त करती है, जिनके सक्रिय सहयोग व समन्वयके बिना ग्रन्थकी सामग्रीका संयोजन एवं चयन सम्भव ही नहीं था। हमें प्रसन्नता है कि समितिके निवेदन पर हमें देश और विदेशके प्रश्रुत विद्वानोंने अपने लेख व बहुमूल्य संस्मरण भेजे । यह सामग्री इतनी अधिक थी कि उसे पूर्णतः सम्मिलित करना सम्भव नहीं था। इससे ग्रन्थमें अनेक बहुमूल्य लेखोंका समाहरण नहीं हो सका। समिति अपने इन सहृदय लेखकोंके प्रति तो आभार ब्यक्त करती ही है, साथ ही, उन सहयोगी लेखकोंसे क्षमाप्रार्थी भी है, जिनके लेखोंको अपनी सीमाओंके कारण मुद्रित नहीं किया जा सका। अपनी समय-सीमामें मुद्रण कार्य करने हेतु हमारे प्रबन्ध सम्पादक श्री बाबू लालजी फागुल्लने अथक प्रयत्न किया है और व्यक्तिगत रुचि ली है। समिति उनकी ऋणी है। समितिके कार्यालयीय कार्यमें कु० प्रतिमा जैन एम० ए० का सहयोग तो भुलाया ही कैसे जा सकता है ! वह तो मेरी पुत्रीके समान ही है। उसे मैं आशीर्वाद ही दे सकता हैं । हमारे इस आयोजनमें अनेक अन्य व्यक्तियों तथा स्याद्वाद विद्यालयके भूतपूर्व स्नातकोंने भी प्रत्यक्ष और परोक्ष सहयोग किया है। इन सभीका नामोल्लेख यहाँ सम्भव नहीं है। उन सबकी समिति आभारी है। हाँ, डॉ० नन्दलाल जैनका उल्लेख यहाँ आवश्यक मानता हूँ। वे इस आयोजनमें अथसे इति तक अत्यन्त श्रम, लगन और निष्ठासे जुटे रहे । वास्तवमें, यह उन्होंकी जीवन्त सक्रियताका परिणाम है कि हम यह आयोजन अनेक तकनीको और प्रतिस्पर्धी व्यवधानोंके बावजूद भी यथासमय सम्पन्न कर सके। हमारे आयोजनके साहित्यिक, सामाजिक, प्रशासकीय एवं वित्तीय-सभी पक्षोंको उन्होंने 'एकला चलो रे के आधार पर सम्हाला है। हम उन्हें भी अपना आशीर्वाद देना चाहते हैं। समिति अपने सभी सदस्यों, आयोजन समितिके सदस्यों, पन्द्रह नगरोंके सहायकों, आठ संस्थाओं तथा भाई सतीश कुमारजीके प्रति भी आभारी हैं, जिन्होंने समितिको आर्थिक दृष्टिसे पुष्ट बनाया है। अपने अन्तिम और क्रान्तिक समयमें भाई रमेशचन्द्र जैन, दिल्लीने हमें जो सहयोग दिया, उसे कैसे भुलाया जा सकता हैं ? अन्तमें, समितिको विश्वास है कि पिछले इक्कीस महीनोंके छः सौ तीस दिनोंके लगभग दो हजार घण्टों, तेइस हजार किलोमीटरकी यात्राओं, १७० व्यक्तिगत एवं, २५०० पत्राचारी सम्पर्कों एवं बत्तीस हजारकी राशिके माध्यमसे सम्पन्न यह प्रयास विद्वद-वर्ग, अध्येता तथा अनुसन्धित्सुओं एवं समाजके प्रगतिशील विचारकोंके लिए सारवान् सिद्ध होगा। यदि इसमें कोई अपूर्णता और त्रुटियाँ रह गई हों, तो वे मेरी स्वतः की ही हैं। इनके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हैं। जवलपुर निर्मलचन्द्र जैन १० अक्तूबर १९८० अध्यक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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