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________________ १ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएँ : ३९ हयी थी। जूनमें कुछ दिनोंका अवकाश लेकर मैं सिरोंज आया। मामाजीने कहा, तुम बीना चले जाओ, लड़का देख आओ, कस्तुरीका सम्बन्ध करना है, मैंने कहा ठीक है। अब बीना मैं किसके यहाँ ठहरूँ यह प्रश्न मेरे सामने था। इस समय मुझे पं० महेन्द्र कुमारजीको बात याद आयो "कन्या राशिका चमत्कार", क्यों न मैं चमत्कार वालोंका मेहमान बनें ? शामको मैं बीना आ गया। आते ही मैंने अपना परिचय दिया । पण्डितजी बड़े खुश हुये, और अपने आत्मीयभावसे मुझे बहुत ही प्रभावित किया, मैं गद्-गद हो गया । लड़का मुझे पसन्द नहीं आया, किन्तु पण्डितजीके अपार स्नेहको लेकर लौट आया। यह जून सन् १९४१ की बात है । यही पूज्य पं० बंशीधरजीसे प्रथम परिचय था। सन् १९४८ मई मासमें सोनगढ़ में विद्वत् परिषद्का अधिवेशन हुआ। यह कानजी स्वामीके उदयकालका अवसरपर था। इस अधिवेशनमें समाजके चोटीके मूर्धन्य अनेक विद्वान पहँचे थे। वहाँसे लौटते समय पं० बंशीधरजी सूरत आये। मेरे ही घर ठहरे थे, आपको जैनमित्रकी पुरानी फायलोंकी आवश्यकता थी। वे फायले कार्यालयसे लाकर उन्हें दे दी थीं, दो दिन ठहरकर बीना चले गये । पूज्य पण्डितजीके आगमनपर मुझे बहुत ही आनन्द मिला। फिर तो पूज्य पण्डितजी समय-समयपर कई बार मिले । परिचयने निकटता-घनिष्ठताका रूप ले लिया। फिर तो पण्डितजीके घर कई बार आना-जाना होता रहा। [ उत्तर भाग ] पूज्य पण्डितजी जैन समाजकी नजरोंसे ओझल रहे और अपनी ख्याति एवं प्रसिद्धिसे दूर रहे । यहो कारण है कि सामान्य जैन समाज आपको न जान सका। ६० वर्षों तक चारों अनुयोग ग्रन्थोंका आलोडन एवं मन्थन कर आपने नवनीत निकाला। मैंने स्वयं देखा है कि पण्डितजी ठीक ३ बजे उठकर या तो कुछ लिखते हैं या किसी ग्रन्थका पारायण करते हैं। जबकि मैं ६ बजे उठता था जबकि मैं पण्डितजीके घर मेहमानके रूपमें होता था। खानिया तत्त्वचर्चा में आपका प्रमुख हाथ था। जैनदर्शन और जैनसिद्धान्तके अधिकारी विद्वान हैं। वीरवाणी पत्रिकामें कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी लेख माला कई अंकोंमें निकलती रही। ऐसी लेखमालाका पुस्तकाकार छपना बहुत आवश्यक है। हमारे समाजमें गुण-ग्राहकता नहीं जैसी है। यही कारण है कि पण्डितजीकी ८४ वर्षकी आयमें अभिनन्दन ग्रन्थ देनेका निर्णय समाजने लिया, यह पण्डितजी अभिनन्दनीय हैं हो किन्तु वे इससे अधिक अभिवन्दनीय एवं अभिनन्दनीय हैं । अभिनन्दनकी पावन मांगलिक बेलापर मैं पूज्य पण्डितजीके सुखी, स्वस्थ जीवन और शतायुष्यकी मंगल कामना करता हूँ। समाजके मार्गदर्शक .श्री लालजी जैन, बी० कॉम, अनुभाग अधिकारी विभाग, परीक्षा का हि०वि० वाराणसी नियंत्रक कार्यालय यह परम प्रसन्नताकी बात है कि समाजने पंडित बंशीधरजी व्याकरणाचार्य के अभिनन्दन करनेका निर्णय लिया है और उनके व्यक्तित्व, कृतित्व एवं दार्शनिक योगदान स्वरूप एक अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित करनेका निश्चय किया है। आदरणीय पंडितजी सादगीको प्रतिमूर्ति एवं भद्रपरिणामी व्यक्ति हैं । अध्ययन-अध्यापनके क्षेत्रसे दूर रहते हुए भो पंडितजीने जैनवाङ्मयकी जो सेवा की है, वह अपने आपमें एक मिसाल है। केवल स्वाध्यायके बलपर पंडितजीने जैन सिद्धान्त, दर्शन, न्याय, इतिहास आदिका जो दिग्दर्शन अपने लेखों एवं कृतियोंमें कराया है वह अत्यन्त ग्राह्य एवं आगमानुकूल है। तथ्योंका जो विवेचन पंडितजीने प्रस्तुत किया वह सांगोपांग एवं सरल है । सुधीजन ही नहीं अपितु सामान्यजन भी उसका लाभ उठा सकते हैं । दार्शनिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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