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________________ १ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएँ : ३५ राष्ट्रीय स्वतन्त्रता-आन्दोलनमें न केवल भाग ही लिया है, अपितु ९, १० माह जेल में भी रहे । अपने क्षेत्रमें कांग्रेसके सदस्य बनकर राष्ट्रकी निरन्तर सेवा की है। आश्चर्य यह है कि आपने इन सामाजिक और राष्ट्रीय प्रवृत्तियोंके साथ आर्ष सम्मत सैद्धान्तिक, दार्शनिक और तार्किक लेखों एवं ग्रन्थों द्वारा सम्यग्ज्ञानका भी प्रचार किया है। ऐसी बहमखी सेवाओंके उपलक्ष्यमें उनका अभिवन्दन एवं अभिनन्दन नितान्त आवश्यक था। आज समाज उनका अभिनन्दन कर रहा है, यह परम प्रमोदकी बात है। मैं भी एक लघु पत्रकारके नाते इस अवसर पर उनका अभिवन्दन करते हए अपने श्रद्धा-पुष्प अर्पित करता है कि वे हम लोगोंको दीर्घकाल तक मार्ग दर्शन करते रहें। शान्तिप्रिय क्रान्तिकारी समाज-सेवक .डॉ० नरेन्द्र विद्यार्थी साहित्याचार्य, एम० ए०, पी-एच० डी० पूर्व विधायक, छतरपुर समाज सेवाके क्षेत्रमें .. जैन तीर्थ क्षेत्र देवगढ़ में जब एक विशाल गजरथका आयोजन हुआ, तब सागरके जैन जातिभूषण सिं० कुन्दन लालजी तथा पूज्य पं० दयाचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री (प्रधानाध्यापक श्री गणेश दि० जैन संस्कृत विद्यालय, सागर) के साथ मैं भी देवगढ़ गया। आदरणीय सिंघईजीका स्नेहिल आदेश और पं० जीकी साथ ले चलनेकी स्वीकृति, दोनों मेरे लिये वरदान थे। वहीं पूज्य पं० बंशीधरजीके सर्वप्रथम दर्शन हुए । नव स्थापित "सन्मार्ग प्रचारिणी सभा" के मंचसे गजरथकी असामयिकतापर इनके भाषणसे मैं इनपर मन-ही-मन नाराज हो गया, क्योंकि उस समय गजरथ मेरी दृष्टि में सबसे बड़ा धार्मिक कार्य था। इतने बड़े रथकार सा० क्या वर्तमानको नहीं जानते ? यही पं० एक समझदार है ? इत्यादि कल्पनाएँ मनमें उठती रहीं। पर इनको भी तो सुनना चाहिये, सुनने में क्या हर्ज है ? सोचकर इनका भाषण सुना और कहकर चला आया कि विरोध ही करना है तो बड़े जोरसे बोलना चाहिये । पं० जीकी गम्भीरता और हमारा लड़कपन कैसे मेल खाते ? आगे चलकर सागर जिलेके केवलारी ग्राममें भी गजरथका आयोजन हुआ, मैं विद्यालयको ओरसे श्री पं० मूलचन्द्रजी बिलौआ सुपरिण्टेण्डेण्ट सा० की सहायतार्थ भेजा गया। पं. बंशीधरजीका विचार-मंच वहाँ भी लगा और हमारे विद्यालयका तम्बू भी इन्ही के पास लगा। फिर वही गजरथ-विरोधी भाषण । अबकी बार तो न सुनना चाहते तो भी सुनना पड़ते थे। सुबह ४ बजे पं० जीका भाषण भगवन्नामस्मरणके साथ प्रारंभ हो जाता । इनके साथ पं० जीके तत्कालीन परम मित्र माननीय पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री थे, वे भी बारी-बारीसे विरोधी भाषण देते थे । मैंने पहले दिन सोचा इन पण्डितोंको कोई अच्छा काम नहीं आता ? पर जब चाहे-अनचाहे इनके भाषण दो दिन सुने, और सोचा तब मेरी समझमें आ गया कि मैं ही गलतीमें था। मेरी विचार-धारामें परिवर्तन आया और मैंने अपने विद्रोह विचार एक कवितामें व्यक्त कर दिये । कविताका अन्तिम छन्द था-- ''कल्याणक को पूर्णविधि को मनगढन्त होते देखा। ऐसे भी गजरथ धर्म अंग हैं, मूखों को कहते देखा।" पाठक स्वयं ही सोच सकते हैं । इस कवितामें गजरथकी खुली आलोचना थी। इससे बौखलाकर एक सज्जन आये, कौन है यह कविता वाला विद्यार्थो ? मैंने कह दिया साहब आखिर इतना बिगड़ने की क्या बात है ? वे बोले-तुमने नहीं सुना वह कह रहा था ऐसे भी गजरथ धर्म अंग हैं, मुखौंको कहते देखा। मैंने कहा हाँ, यह बात तो सुनते ही गलत लगना स्वाभाविक है, परन्तु गम्भीरताके साथ अगर आप सोचें तो शायद आप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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