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________________ ३२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ में इस प्रकारके शब्दोंका दुरुपयोग नहीं किया जायगा और जैनियोंके साथ अभारतीयों जैसा व्यवहार नहीं किया जायगा । मैंने यहाँपर इसका निर्देश किया है कि अभी तक जो लोग जैनियोंका हिन्दुओंसे पृथक् अस्तित्व स्वीकार नहीं करते थे उन्हें भी जैन समाजके प्रचारने उसके हिन्दुओंसे पृथक् अस्तित्वको स्वीकार करनेके लिये मजबूर कर दिया है और ऐसी हालतमें जैन समाज अपने स्वत्वोंकी भली प्रकार रक्षा कर लेगी, इसमें संदेह है। अब तक जैन नेता और जैन समाचारपत्र जैन संस्कृतिके खत्म होनेका भय दिखलाकर ही जैनियोंको हिन्दुओंसे पृथक रहनेके लिये प्रेरित करते आये है । परन्तु उनके पास इस बातकी क्या गारंटी है कि वे इस तरहसे जैन संस्कृतिकी रक्षा कर ही लेंगे, जब कि खतरा निर्विवाद सामने है। . इस समय जैनियोंको बहुत ही सावधानीके साथ लिखने, बोलने और कार्य करनेकी जरूरत है । जैनियोंको सोचना चाहिये कि भगवान महावी रके बाद जैन संस्कृतिका महत्तम उद्धारक यदि किसीको माना सकता है तो वह महात्मा गांधी हैं। इनकी क्रान्तिसे जितना बल जैन संस्कृतिको मिला है उतना दूसरी संस्कृतिको नहीं । परन्तु जैनियोंमें जिनसेनाचार्य जैसे प्रभावक-नेताओंका अभाव होनेसे जैनी महात्मा गांधीको क्रान्तिका जैन संस्कृतिके लिये उचित उपयोग नहीं कर सके हैं। महात्मा गांधीके जीवनका अन्तिम जो लेख १ फरवरी सन् १९४८ के हरिजन सेवकमें प्रकाशित हुआ है उसमें उन्होंने जैन मन्दिरोंमें हरिजनोंको जाने देनेकी बात कही है। उनकी दलील यह है कि यदि जैन मन्दिरोंमें अजैन ब्राह्मण प्रवेश पा सकता है तो भंगीको इसलिये रोकना अन्याय है कि वह अछूत है। यह बात दूसरी है कि जैन विनयका समुचित रीतिसे संरक्षण करनेके लिये जैन मन्दिरोंके व्यवस्थापकों द्वारा नियम बनाये जा सकते हैं। प्रसन्नताकी बात है कि बीनाकी जैन समाजने सर्वसम्मतिसे हरिजनोंके लिये अपने यहाँका जैन मन्दिर खोल देनेका निर्णय किया है। जबलपुरके कुछ प्रमुख जैन सज्जनोंसे अभी कुछ दिन हुए वरुआसागरमें मेरी इस विषयपर चर्चा हुई थी वे हरिजनोंको जैन मन्दिर खोल देनेके पक्षमें हैं। पूज्य पण्डित गणेशप्रसाद जी वर्णी जैन मन्दिर हरिजनोंको खोल देनेमें कोई बुराई नहीं समझते हैं और वे चाहते हैं कि बहुत शीघ्र जैन मन्दिर हरिजनोंके लिये खोल दिये जाना चाहिये। मेरा जैन सभाजसे निवेदन है कि वह उदारतापूर्वक जैन मन्दिर हरिजनोंके लिये खोल देनेका सर्व सम्मत फैसला करे । इसीमें जैन समाज और जैन संस्कृतिका फायदा है और बीनाकी जैन समाजने जैन विनयका संरक्षण करने के लिये जैसी नियमावली बनाई है वैसी नियमावली बनाकर मन्दिरके दरवाजेपर टांक देना चाहिये। जैन मन्दिरोंमें शृंगारका जो सामान प्रदर्शनके लिये लगा रहता है उसे अलग कर देना चाहिये और ऐसे साधन जुटा देना चाहिये, ताकि लोगोंको मन्दिरोंमें वीतरागताका अच्छा परिचय मिल सके। ता० १२ फरवरीके 'जैन मित्र' में 'विचित्रता' शीर्षकसे एक लेख श्री राजमल जैन वी० काम, 'राजेश' कलकत्ताका प्रकट हुआ है उस लेखसे उनका जैनत्वके प्रति श्रद्धानकी अपेक्षा दम्भ ही प्रकट होता है। मैं ऐसे लेख लिखनेवालोंसे प्रार्थना करूंगा कि हमलोग केवल भावुकताके ही शिकार न बनें, आपके ऊपर जैन संस्कृतिके भविष्यकी जबाबदारी है। यदि हम इस तथ्यको न समझ सके और समयका उचित उपयोग न कर सके तो भावी पीढ़ीके सामने हमलोग मूर्ख सिद्ध होंगे। अन्तमें मैं इतना और स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यदि किसी तरफसे जैन संस्कृतिको खत्म कर देनेकी ही साजिश की जाती है तो उसके विरुद्ध हमारा सर्वदा तैयार रहना अनुचित न होगा। मैं ऐसे किसी भी उचित प्रयत्नका स्वागत करूँगा और इसके लिये 'सन्मार्ग प्रचारिणी समिति' आगे करती हई दिखाई देगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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