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________________ २२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं०बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ तरह उच्चगोत्र या कूलमें जन्म लेने वाले मनुष्योंको उच्च तथा नीच गोत्र या कुलमें जन्म लेने वाले मनुष्योंको नीच कहना चाहिए । आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीके उल्लिखित व्याख्यानसे यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है कि उच्चगोत्रमें पैदा होनेवाले मनुष्योंके नियमसे उच्चगोत्र-कर्मका तथा नीचगोत्रमें पैदा होनेवाले मनुष्योंके नियमसे नीचगोत्र-कर्मका ही उदय विद्यमान रहा करता है अर्थात् बिना उच्चगोत्र-कमके उदयके कोई भी जीव उच्च कुलमें और बिना नीचगोत्र-कर्म के उदयके कोई भी जीव नीच कुलमें उत्पन्न नहीं हो सकता है। तत्त्वार्थसूत्रको टीका सर्वार्थसिद्धि में उसके आठवें अध्यायके 'उच्चैर्नीचश्च' (सूत्र १२) सूत्रकी टीका करते हए आचार्य श्रीपूज्यपादने भी यही प्रतिपादन किया है कि “यस्योदयाल्लोकपूजितेषु कुलेषु जन्म तदुच्चेर्गोत्रम् । यदुदयाद् गहितेषु कुलेषु जन्म तन्नीचैगोत्रम् ।" अर्थात् जिस गोत्र-कर्मके उदयसे जीवोंका लोकपूजित (उच्च) कुलोंमें जन्म होता है उस गोत्रकर्मका नाम उच्चगोत्र कर्म है और जिस गोत्रकर्मके उदयसे जीवोंका लोकहित ( नीच ) कुलोंमें जन्म होता है उस गोत्र कर्मका नाम नीचगोत्र कर्म है । जैन संस्कृतिके आचारशास्त्र (चरणानुयोग ) और करणानुयोगसे यह सिद्ध होता है कि सभी देव उच्चगोत्री और सभी नारकी और सभी तिर्यञ्च नीचगोत्री ही होते हैं, परन्तु ऊपर जो उच्चगोत्र-कर्मकी उदीरणा करने वाले तिर्यचोंका कथन किया गया है उन्हें इस नियमका अपवाद समझना चाहिए, मनुष्योंमें भी केवल आर्यखण्डमें बसने वाले कर्मभूमिज मनुष्य ही ऐसे हैं जिनमें उच्चगोत्री तथा नीचगोत्री दोनों प्रकारके वर्गोका सद्भाव पाया जाता है अर्थात् उक्त कर्म-भूमिज मनुष्योंमेंसे चातुर्वण्य व्यवस्थाके अन्तर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्गों और इन वर्गों के अन्तर्गत जातियोंके सभी मनुष्य उच्चगोत्री ही होते हैं, इनसे अतिरिक्त जितने शद्र वर्ण और इस वर्णके अन्तर्गत जातियोंके मनुष्य पाये जाते हैं वे सब तथा चातुर्वण्य व्यवस्थासे बाह्य जो शक, यवन, पुलिन्दादिक है, वे सब नीचगोत्री ही माने गये है । आर्यखण्डमें बसनेवाले इन कर्मभूमिज मनष्योंको छोड़कर शेष जितने भी मनुष्य लोकमें बतलाये गये हैं उनमेंसे भोगभूमिके सभी मनुष्य उच्चगोत्री तथा पाँचों म्लेच्छखण्डोंमें बसने वाले मनुष्य और अन्तर्वीपज मनुष्य नीचगोत्री ही हुआ करते हैं, आर्यखण्डमें बसने वाले शक, यवन, पुलिन्दादिकको तथा पाँचों म्लेच्छखण्डोंमें और अन्तर्दीपोंमें बसने वाले मनुष्योंको जैन संस्कृतिमें म्लेच्छ संज्ञा दी गयी है और यह बतलाया गया है कि ऐसे म्लेच्छोंको भी उच्चगोत्री समझना चाहिए, जिनका दीक्षाके योग्य साधु आचारवालोंके साथ सम्बन्ध स्थापित हो चुका हो और इस तरह जिनमें 'आर्य' ऐसा प्रत्यय तथा 'आर्य' ऐसा शब्द व्यवहार भी होने लगा हो। इससे जैन संस्कृतिमें मान्य गोत्रपरिवर्तन के सिद्धान्तकी पुष्टि होती है, गोत्रपरिवर्तनके सिद्धान्तको पुष्ट करने वाले बहुतसे लौकिक उदाहरण आज भी प्राप्त है । जैसे—यह इतिहासप्रसिद्ध है कि जो अग्रवाल आदि जातियाँ पहले किसी समयमें क्षत्रिय वर्णमें थीं वे आज पूर्णतः वैश्य वर्णमें समा चुकी है, जैनपुराणोंमें अनुलोम और प्रतिलोम विवाहोंका उल्लेख है. उल्लेख स्त्रियोंके गोत्र-परिवर्तनकी सूचना देते हैं । आज भी देखा जाता है कि विवाहके अनन्तर कन्या पितपक्षके गोत्रकी न रहकर पतिपक्षके गोत्रकी हो जाती है। इस संपूर्ण कथनका अभिप्राय यह है कि यदि परिवर्तित गोत्र उच्च होता है तो नीचगोत्रमें उत्पन्न हई कन्या उच्चगोत्रकी बन जाती है और यदि परिवर्तित गोत्र नीच होता है तो उच्चगोत्रमें उत्पन्न हुई नारी भी नीचगोत्रकी बन जाती है और परिवर्तित गोत्रके अनुसार ही नारीके यथायोग्य नीचगोत्र कर्मका उदय न रहकर उच्चगोत्र कर्मका उदय तथा उच्चगोत्रका उदय समाप्त होकर नीचगोत्र कर्मका उदय आरम्भ हो जाता है। इसी प्रकार मनुष्यमें जीवनवृत्तिका परिवर्तन न होनेपर Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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