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________________ हमारी द्रव्य-प्रजाका रहस्य - पूजाका अर्थ भक्ति, सत्कार या सम्मान होता है और वह छोटों द्वारा बड़ों ( पूज्यों ) के प्रति प्रकट किया जाता है। इसका मल कारण पूजकको अपनी लघता और पज्यको महत्ताको स्वीकार उद्देश्य अपनी लघुताको नष्ट कर पूज्य जैसी महत्ताकी प्राप्तिमें प्रयत्न करना है। इसके प्रकट करनेके साधन मन, वचन और काय तो हैं ही, परन्तु कहीं-कहीं बाह्य सामग्री भी इसमें साधनभूत हो जाया करती हैं । जहाँ पर मन, वचन और कायके साथ-साथ बाह्य सामग्री इसमें साधनभूत हो, उसका नाम द्रव्यपूजा है तथा जहाँ केवल मन, वचन और कायसे ही भक्ति-प्रदर्शन किया जाय उसे भावपूजा समझना चाहिए। वैसे जो मनके . द्वारा भक्तिप्रदर्शन भावपूजा तथा वचन और कायके द्वारा भक्ति प्रदर्शन द्रव्यपूजा कही जा सकती है, परन्तु यहाँपर इस प्रकारकी द्रव्यपूजा और भावपूजाकी विवक्षा नहीं है। शास्त्रोंमें जो द्रव्यपूजा और भावपूजाका उल्लेख आता है वह क्रमसे बाह्य सामग्रीकी अपेक्षा और अनपेक्षामें ही आता है । - उल्लिखित द्रव्यपूजाका लोकव्यवहारमें समावेश तो परंपरागत कहा जा सकता है । अपनेसे बड़े पुरुषोंको उनकी प्रसन्नताके लिये उत्तमोत्तम सामग्री भेंट करना शिष्टाचारमें शामिल है । भगवदाराधनमें भी कबसे इसका उपयोग हुआ, इसकी गवेषणा यद्यपि ऐतिहासिक दृष्टिसे की जा सकती है। लेकिन यहाँपर इसकी आवश्यकता नहीं है, यहाँ तो सिर्फ इस बातको प्रकट करना है कि हमारे यहाँ ईश्वरोपासनामें द्रव्यपूजाका जो प्रकार है वह किस अर्थको लिये हुए है। यद्यपि मेरे विचारोंके अनुसार शास्त्रोंमें स्पष्ट उल्लेख तो जहाँ तक है, नहीं मिलता है। परन्तु पूजापाठोंके अवतरण, अभिषेक व जयमाला आदि भागोंमें, मेरे इन विचारोंका फिर यह तो ध्यानमें रखना ही चाहिये कि जो विचार युक्ति और अनुभव विरुद्ध नहीं, वे शास्त्रबाह्य नहीं कहे जा सकते । इसी विचारसे मैं अपने विचारों को प्रकट करनेके लिये बाध्य हुआ हूँ। शास्त्रोंमें द्रव्यपूजाका अष्टद्रव्यसे करनेका विधान पाया जाता है और हमारा श्रद्धालु समाज बिना किसी तर्क-वितर्कके निःसंकोच अर्हन्त, सिद्ध, गुरु, शास्त्र, धर्म, व्रत, रत्नत्रय, तीर्थस्थान आदिको पूजा करते समय निश्चित अष्टद्रव्योंको उपयोगमें लाता है। समाजके उदार हृदयमें यह विचार ही पैदा नहीं होता कि ये वस्तुयें जिसके लिये अर्पण की जा रही हैं वह जड़ हैं या चेतन है अथवा आत्माकी अवस्थाविशेष है। अरहंत, सिद्ध, शास्त्र, धर्म, व्रत, रत्नत्रय व तीर्थस्थानोंको जलादि अष्टद्रव्यका अर्पण करना बुद्धिगम्य कहा जा सकता है या नहीं ? परन्तु तर्कशील लोगोंने इसके ऊपर हमेशासे आक्षेप उठाये है और वे आज भी उठाते चले जा रहे हैं । उन आक्षेपोंका यथोचित समाधान न होने के कारण ही एक संप्रदायमें मूर्तिमान्यताके विरोधी दलोंका आविष्कार हुआ है। जैनियोंके श्वेताम्बर सम्प्रदायमें हँढिया पंथ और दिगम्बर सम्प्रदायमें तारण पंथ 'इन आक्षेपोंके समाधान न होनेके ही फल हैं। केवल जैनियोंमें ही नहीं, जैनेतरोंमें भी इस प्रकारके पंथ कायम हुए है, परन्तु यह संभव है कि जैनेतरोंमें विरोधके कारण जैनियोंसे भिन्न है । ___ कुछ भी हो, परन्तु जैन सिद्धान्त इस बातको नहीं मानता कि जो द्रव्य भगवानके लिये अर्पण किया जाता है वह उनकी तृप्तिका कारण होता है, कारण कि उनमें इच्छाका सर्वथा अभाव है। इसलिये कोई भी वाह्य वस्तु उनकी तृप्तिका कारण नहीं हो सकती, उनकी तृप्ति तो स्वाभाविक ही है। इसलिये अपने विचारों व आचरणोंको पवित्र व उन्नत बनानेके लिये भगवानके गुणोंका स्मरण ( भावपूजा) ही पर्याप्त है । भगवानके गुणस्मरणमें मूर्ति सहायक है, मूर्तिको देखकर गुणस्मरणमें हृदयका झुकाव सरलतासे हो जाता है । इसलिये भगवानके गुणोंका स्मरण करते समय मूर्तिका अवलम्बन युक्ति और अनुभव विरुद्ध नहीं, परन्तु ऊपर बतलाये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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