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________________ ५/साहित्य और इतिहास : ४९ काल), (२) दुःषमा' (साधारण दुःखमय काल), ३-दुःषम-सुषमा२ (दुःख प्रधान सुखमय काल), ४-सुषमदुःषमा (सुखप्रधान दुःखमय काल), ५-सुषमा (साधारण सुखमय काल) और ६-सुषम-सुषम सुखमय काल)। ये छह विभाग उत्सर्पिणी कालके तथा इनके ठीक विपरीत क्रमको लेकर अर्थात् १-सुषमसुषमा (अत्यन्त सुखमय लाल), २--सुषमा (साधारण सुखमय काल), ३-सुषम-दुःषमा (सुखप्रधान दुःखमय काल), ४-दुषमा-सुषमा (दुःखप्रधान सुखमय काल), ५-दुःषमा१ (साधारण दुःखमय काल) और ६–दुःषम-दुःषमा१२ (अत्यन्त दुःखमय काल) ये छह3 विभाग अवसर्पिणी कालके स्वीकार किये गये हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार सूर्यकी गतिके दक्षिणसे उत्तर और उत्तरसे दक्षिणकी ओर होनेवाले परिवर्तनके आधारपर स्वीकृत वर्षके उत्तरायण और दक्षिणायन विभाग गतिक्रमके अनुसार तीन-तीन ऋतुओंमें विभक्त होकर सतत चालू रहते हैं उसी प्रकार एक दूसरेसे बिलकुल उलटे पूर्वोक्त उत्सर्पण और अपसर्पणके आधारपर स्वीकृत कल्पके उत्सर्पिणी और अवसपिणी विभाग भी उत्सर्पणक्रम और अवसर्पणक्रमके अनुसार पूर्वोक्त छह-छह विभागोंमें विभक्त होकर अविच्छिन्न रूपसे सतत चालू रहते हैं । १४ अथवा रात्रिके बारह बजे से दिनके बारह बजेतक अन्धकारकी क्रमसे हानि होते-होते क्रमसे होनेवाली प्रकाशकी वृद्धिके आधार पर और दिनके बारह बजेसे रात्रिके बारह बजेतक प्रकाशकी क्रमसे हानि होते-होते क्रमसे होनेवाली अन्धकारकी वृद्धिके आधारपर जिस प्रकार चार-चार प्रहरोंकी व्यवस्था पाई जाती है उसी प्रकार उत्सर्पिणी काल और अवसर्पिणी कालमें भी पूर्वोक्त छह-छह विभागोंकी व्यवस्था जैन मान्यतामें स्वीकृत की गई है। जैनमान्यताके अनुसार प्रत्येक उत्सर्पिणी कालके तीसरे और प्रत्येक अवसर्पिणी कालके चौथे दुःषमासुषमा नामक विभागमें धर्मको प्रकाशमें लानेवाले एकके बाद दूसरा और दूसरेके बाद तीसरा इस प्रकार क्रमसे नियमपूर्वक चौबीस तीर्थकर (धर्मप्रवर्तक महापुरुष) उत्पन्न होते रहते हैं। इस समय जैनमान्यताके अनुसार १. वही। २. व्यालीस हजार वर्ष कम एककोटीकोटी, सागरोपमसमयप्रमाण । ३. दोकोटीकोटीसागरोपमसमयप्रमाण । ४. तीनकोटीकोटीसागरोपमसमयप्रमाण । ५. चारकोटीकोटीसागरोपमसमयप्रमाण । ६, अवसर्पिणी कालके समाप्त हो जानेपर जब उत्सपिणी कालका प्रारम्भ होता है उस समयका यह वर्णन है--- --तिलोयपण्णत्ती, चौथा महा अधिकार, गाथा १५५५, १५५६ । ७. चारकोटीकोटीसागरोपमसमयप्रमाण । ८. तीनकोटोकोटीसागरोपमसमयप्रमाण । ९. दोकोटीकोटीसागरोपमसमयप्रमाण । १०. व्यालीस हजार वर्ष कम एककोटीकोटीसागरोपमसमयप्रमाण । ११. इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण । १२. इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण ।। १३. आदिपुराण पर्व ३, श्लोक १७, १८ । १४. आदिपुराण पर्व ३, श्लोल २०, २१ । १५. उत्सर्पिणी कालके तीसरे दुःषमसुषमा कालका वर्णन करते हुए यह कथन है -तिलोयपण्णत्ती, चौथा महाधिकार, गाथा १५७८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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