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________________ ३८ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ मङ्गलाचरण किया है उससे मेरे उल्लिखित कथनका ही समर्थन होता है। उस पद्य में वीतराग-विज्ञानताको तीनों लोकोंमें श्रेष्ठ प्ररूपित करते हुए उसके समर्थनके लिये जो "शिवस्वरूप' और 'शिवकार' ये दो पद निक्षिप्त किये गये हैं उनमेंसे 'शिवस्वरूप' पदसे तो वीतराविज्ञानताको स्वयं आनन्दस्वरूप बतला दिया गया है और 'शिवकार' पदसे उस वीतराग-विज्ञानताको आनन्दका कारण भी प्ररूपित कर दिया गया है । जहाँ वीतरागविज्ञानताको आनन्दस्वरूप कहा गया है वहाँ तो उसका आशय मानवजीवनके आध्यात्मिक चरमोत्कर्षसे लिया गया है और उस वीतरागविज्ञानताको जहाँ आनन्दका कारण स्वीकार किया गया है वहाँ उसका आशय मूलतः अन्तःकरणमें उद्धृत विवेक या सम्यग्दर्शनके साथ यथायोग्यरूपमें पाये जानेवाले उस ज्ञानसे लिया गया है जिसे "जियो और जीने दो"के सिद्धान्तकी आधारभूमि कहा जा सकता है। अब इससे मेरे उल्लिखित कथनका समर्थन किस प्रकार होता है, इसका स्पष्टोकरण निम्न प्रकार जानना चाहिये। वीतराग शब्दमें जो रागशब्द गर्भित है वह द्वेषका भी उपलक्षण है। इस प्रकार जो ज्ञान राग अथवा द्वेषसे प्रभावित न हो उस ज्ञानको ही जैन संस्कृतिमें 'वीतरागविज्ञान' शब्दसे पुकारा गया है। जीवमें राग और द्वेष दोनोंकी उत्पत्ति दो प्रकारसे हुआ करती है। उन दोनों प्रकारों से एक प्रकार तो दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे जीवमें ही उत्पन्न होनेवाला मोहपरिणाम यानी जीवका परपदार्थोंमें अहंभाव या ममभाव है और दुसरा अन्तरायकर्मके देशघातिस्पर्धकोंके उदयसे जीवमें ही उत्पन्न होनेवाली जीवनसम्बन्धी भोग, उपभोग आदि पर पदार्थोंकी अधीनता यानी परवशता या मजबूरी है। यद्यपि राग और द्वेष दोनों चारित्रमोहनीयकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाले आत्मपरिणाम है । परन्तु ये दोनों ही परिणाम जीवमें या तो उक्त मोहरूप आत्मपरिणामकी प्रेरणा मिलनेपर उत्पन्न होते हैं या फिर जीवकी जीवनसम्बन्धी भोगादिपरवशता रूप आत्मपरिणामकी प्रेरणा मिलनेपर उत्पन्न होते हैं। मनमें उत्पन्न होनेवाली अनधिकारपूर्ण और अकरणीय आकांक्षाओंकी पूतिके कारणोंके प्रति होनेवाले प्रीतिरूप आत्मपरिणामका नाम मोहनीयकर्मके उदयसे उत्पन्न उक्त मोहरूप आत्मपरिणामकी प्रेरणा मिलनेपर उत्पन्न होने वाला रागभाव है और उक्त प्रकारकी उन आकांक्षाओंकी पूर्तिमें बाधा पहुँचाने वाले कारणोंके प्रति होनेवाले अप्रीति व आत्मपरिणामका ही नाम उक्त मोहरूप आत्मपरिणामकी प्रेरणा मिलनेपर उत्पन्न होनेवाला द्वषभाव है। इसी प्रकार जीवके भोग और उपभोग आदि परवस्तुओंकी अधीनताको प्राप्त जीवनकी जो भी आवश्यकतायें हों उनकी पूतिके कारणोंका उपयोग करने रूप आत्मपरिणामका नाम अन्तरायकर्मके देशघातिस्पर्द्धकोंके उदयसे उत्पन्न परवशतारूप आत्मपरिणामकी प्रेरणा मिलनेपर उत्पन्न होनेवाला रागभाव है और उक्त प्रकारको आवश्यकताओंकी पूर्तिमें बाधा पहँचानेवाले कारणोंका प्रतिरोध करने रूप आत्मपरिणामका नाम उक्त परवशतारूप आत्मपरिणामकी प्रेरणा मिलनेपर उत्पन्न होनेवाला द्वद्वेष भाव है। दर्शनमोहनीयकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाले उक्त मोहको प्रेरणासे उत्पन्न होनेवाले राग और द्वेष और अन्तरायकर्म के देशघातिस्पर्धकोंके उदयसे उत्पन्न होनेवाली उक्त परवशताकी प्रेरणासे उत्पन्न होनेवाले राग और दूषके अन्तरको सरलतासे समझनेके लिये उदाहरणके रूपमें यह बात कही जा सकती है कि अभी कुछ मास पूर्व जो पाकिस्तान और भारतके मध्य भयंकर युद्ध हुआ था उसने पाकिस्तानके राष्ट्रपतिकी इच्छा भारतको पददलित करनेकी थी इसलिये उनका वह युद्ध करने रूप परिणाम मोहकी प्रेरणासे उत्पन्न होनेवाला द्वेषभाव था और चूँकि जब पाकिस्तानका भारतपर आक्रमण हो गया तो भारतको भी परवश युद्धमें कूदना पड़ा । इसलिये भारतके तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री लालबहादुर शास्त्रीका परवशताकी प्रेरणासे उत्पन्न होनेवाला द्वषभाव था। उन दोनोंके द्वेषभावमें अन्तर विद्यमान रहने के कारण ही विवेकशील देशोंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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