SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 593
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ व शरीरादि नोकर्मों के साथ अपथकभावको प्राप्त आत्माको इनसे पृथक करके स्वतन्त्र बनानेके मार्गपर भी चलनेकी शिक्षा देता है । इस तरह जाना जा सकता है कि जैन संस्कृतिका सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान दो भागोंमें विभक्त है। उनमेंसे एक भाग तो प्राणियोंके जीवनको सूखी बनामें समर्थ लौकिक तत्त्वज्ञानका है जिसे जैन संस्कृतिके आगमग्रन्थों में “सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ! ॥" के रूप में प्रतिपादित किया गया है और दूसरा भाग आत्माको स्वतन्त्र बनाने में समर्थ आध्यात्मिक तत्त्वज्ञानका है, जिसे आगमग्रन्थोंमें 'अहमिक्को खलु सुद्धो' इत्यादि वचनों द्वारा आत्मतत्त्वकी पहिचान करके उसे प्राप्त करनेके मार्ग के रूपमें प्रतिपादित किया गया है। जैन संस्कृतिके लौकिक तत्त्वज्ञानका मूल आधार उल्लिखित पद्य द्वारा निर्दिष्ट "जियो और जीने दो" का सिद्धान्त है । अतः जैन संस्कृतिके पुरस्कर्ता तीर्थंकरों, विकासकर्ता गणधरदेवों और प्रसारकर्ता आचार्योंने उद्घोषणा की है कि भो ! मानव प्राणियो ! यदि तुम अपना जीवन सुख और शान्तिपूर्वक व्यतीत करना चाहते हो तो जैन संस्कृतिके "जियो और जीने दो" इस सिद्धान्तको हृययंगम करो, क्योंकि इसमें मनके संकल्पोंको पवित्र तथा वाणीको अमृतमयो बनानेकी क्षमता विद्यमान है व इसके प्रभावसे प्राणियोंकी जीवनप्रवृत्तियाँ भी एक-दूसरे प्राणियोंके जीवनको अप्रतिघाती बन जाती हैं। यही कारण है कि भगवज्जिनेन्द्र के पुजारीको अपने जीवनमें "जियो और जीने दो'का सिद्धान्त अपनानेके लिये प्रतिदिन पूजाकी समाप्तिपर यह उद्घोष करनेका जैन संस्कृतिके आगमग्रन्थोंमें उपदेश दिया गया है कि "क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपालः काले काले च सम्यग् वर्षतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम् । दुभिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मास्मभूज्जीवलोके जैनेन्द्रं धर्मचक्र प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि ॥" इसके अर्थको प्रकट करनेवाला सर्वसाधारणको समझमें आने योग्य हिन्दी पद्य निम्न प्रकार है "होवे सारी प्रजाको सुख, बलयुत हो धर्मधारी नरेशा ' होवै वर्षा समय पै, तिलभर न रहै व्याधियोंका अंदेशा । होवे चोरी न जारी, सुसमय वर्ते, हो न दुष्काल भारी सारे ही देश धाएँ जिनवरवृषको, जो सदा सौख्यकारी॥" इससे यह बात अच्छी तरह ज्ञात हो जाती है कि प्रत्येक मानवको अपने जीवनमें सुख और शान्ति लानेके लिये सम्पूर्ण मानव-समष्टिके जीवनमें सुख और शान्ति लानेका ध्यान रखना परमावश्यक है। जैन संस्कृतिके आध्यात्मिक तत्त्वज्ञानकी विशेषता यह है कि इसे पाकर यह तुच्छ मानव देहधारी प्राणी अपनी जन्म और मरणकी प्रक्रियाको समाप्त करके हमेशाके लिये अजर-अमर बनकर नित्य और निरामय स्वातंत्र्य-सुखका उपभोक्ता हो जाता है। इस तन्वज्ञानके आधारपर मानव-जीवनके विकासके अनुसार आत्मविकासको प्रक्रियाका विवेचन जैन संस्कृतिके आगमग्रन्थोंमें निम्न प्रकार उपलब्ध होता है जब कोई बिरला मनुष्य "जियो और जीने दो"के सिद्धान्तानुसारी लौकिक धर्ममार्गपर चलकर उपलब्ध किये गये जीवनसम्बन्धी (लौकिक) सुखकी पराधीनता और विनशनशीलताको समझकर उसके प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy