SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 583
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशोधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ असंयम मानना ही चाहिये। इस वस्त्रसम्बन्धी असंयमके लिये शेष संयमकी पूर्णता रहते हुए श्वेताम्बर सम्प्रदायकी मान्यताको ध्यानमें रखते हए हम छठे गुणस्थानका जघन्य रूप कह सकते हैं और दिगम्बर मान्यताको ध्यानमें रखते हुए पंचम गुणस्थानका उत्कृष्ट रूप कह सकते हैं । इन दोनों मान्यताओंमें वास्तविक अन्तर कुछ भी नहीं रह जाता है । केवल पांचवें गुणस्थानकी अन्तभूत और छठे गुणस्थानकी आदिभूत मर्यादा बाँधनेका बाह्य अन्तर दोनों सम्प्रदायोंके बीच रह जाता है । वस्त्रको संयमका विरोधी न मानकर वस्त्रग्रहणको ही संयमका विरोधी माननेका हमारा मतलब यह है कि दिगम्बर सम्प्रदायमें भी चेलोपष्ट मनिके संयमका अभाव नहीं स्वीकार किया गया है। तथा मिथ्यात्वव्रतरहित सम्यग्दर्शन और सम्यग्दर्शनके साथ-साथ देशव्रतकी अवस्थाओंमें संयमकी ओर अभिमुख होनेवाले व्यक्तिके जहाँ प्रथम ही सातवें गुणस्थानकी प्राप्ति बतलाई गयी है वहाँ वस्त्रत्यागकी अनिवार्यता नहीं मानी गयी है । इसका मतलब यह है कि सातवें गुणस्थानकी प्राप्ति सवस्त्र हालतमें दिगम्बर मान्यताके अनुसार भी असंभव नहीं है, तो फिर सवस्त्र हालतमें छठे गणस्थानकी प्राप्तिका निषेध दिगम्बर सम्प्रदाय क्यों करता है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि चौदह गुणस्थानोंमेंसे दूसरे, तीसरे और सातवेंसे लेकर बारहवें तक तथा चौदहवें इन गुणस्थानोंका जितना वर्णन किया गया है वह भावाधारपर किया गया है और पहला, चौचा, छठा तथा तेरहवाँ इन गुणस्थानोंका कथन व्यवहाराश्रित है, क्योंकि इन गणस्थानोंका कथन व्यक्तिके अन्तरंग भावोंका कार्यस्वरूप बाह्य प्रवृत्तिके आधारपर किया गया है, इसलिये दिगम्बर सम्प्रदायकी यह मान्यता युक्तियुक्त है। वस्त्रकी स्वीकृति रहते हए भावापेक्षासे भी सकलसंयम नहीं रह सकता है। परन्तु जहाँ वस्त्रकी स्वीकृति रहते हए भी श्वेताम्बर सम्प्रदाय सकलसंयमकी प्राप्तिको स्वीकार करता है वहाँ दिगम्बर सम्प्रदायकी भी यह मान्यता है कि वस्त्रके सद्भावमें भावापेक्षया भी सकलसंयम नहीं रह सकता है। तात्पर्य यह है कि सवस्त्र हालतमें व्यवहाराश्रित षष्ठ गुणस्थानको सम्भावनाको तो किसी तरह टाला जा सकता है परन्तु सप्तम आदि गुणस्थानोंकी सम्भावना अनिवार्य रूपसे जैसीकी तैसी बनी रहती है और इसका अर्थ यह है कि द्रव्यस्त्रीके लिये भी उपशमश्रेणी तथा क्षपकश्रेणी आदि चढ़नेका कोई विरोध नहीं होना चाहिये, परन्तु 'कर्मभूमिज स्त्रियोंके अन्तके तीन ही संहनन हो सकते हैं यह आगम इसमें बाधक हो सकता है, इसलिये इस आगमकी प्रमाणताके लिए आज वैज्ञानिक शोधकी आवश्यकता है । केवली-कवलाहारके बारे में विचार करने का अर्थ है जैन धर्ममें मानी हुई सर्वज्ञकी परिभाषाके बारेमें विचार, कारण कि ये दोनों (कवलाहार और जैन धर्मोक्त सर्वज्ञता) परस्पर-विरोधी ही माने जा सकते हैं, इसलिये जो विद्वान् तत्त्वनिर्णयकी दृष्टिसे इस विषयमें प्रविष्ट हों उन्हें इस मूल बातको पहले ध्यानमें रख लेना चाहिये । हमने इस विषयमें अभी तक जितना विचार किया है उसमें यह निर्णय नहीं कर पाये है कि केवलीके कवलाहार माना जाय या जैन धर्मोंक्त सर्वज्ञता। अन्तमें हमारा निवेदन यह है कि इन विषयों पर या इसी तरहके और भी विषयों पर जितना भी विचार किया जाय वह सब तत्त्वनिर्णायक द्रव्यानुयोगकी दृष्टि है। इससे सर्व साधारणको लाभ और अलाभका सीधा सम्बन्ध नहीं है । सर्व साधारणके लाभ और अलाभका सम्बन्ध तो आध्यात्मिक करणानुयोगकी दृष्टिसे ही है। इसलिये न तो स्त्रीमुक्ति, सवस्त्र-संयम और केवलि-कवलाहारके सिद्ध हो जानेपर समाजका उद्धार हो जायगा और न इसके निषिद्ध कर दिये जाने पर ही समाज उद्धार पा जायगा। अतएव विद्वानोंका एक ओर तो यह कर्तव्य है कि ऐसे विशुद्ध तार्किक मामलोंमें समाजको घसीटनेका प्रयत्न न करते हुए उसके उद्धारका मार्ग खोजनेका प्रयत्न करें और दूसरी ओर स्वपक्षहट और विचारोंकी खींचातानी न करते हुए तत्त्व-निर्णायक (वैज्ञानिक) दृष्टिसे गृढ तत्त्वोंकी शोध भी करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy