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________________ १६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रचार जैनियोंने नहीं किया, दूसरोंने स्वयं ही उसकी महत्तासे उसे ग्राह्य समझकर उसको अपनाया है। इसमें भी हमें इतनेसे ही सन्तोष करना पड़ता है कि उसका प्रचार है। पढ़ने-पढ़ाने वाले यह नहीं समझते कि इस व्याकरणके मूलकर्ता जैन थे। परन्तु यह बात सब व्याकरणोंके लिये लागू नहीं हो सकती है, क्योंकि जो स्वयं अपनी वस्तुको पसन्द नहीं करता है उसको दुसरा कैसे पसन्द कर सकता है। हमारा कर्तव्य होना चाहिये कि उसकी महत्ताको समझें और उसकी उपादेयताका विचार कर उसीका अध्ययन-अध्यापन करें । पाणिनिकी अष्टाध्यायीसे जो काम नहीं निकलता, वह जैनेन्द्र पन्चाध्यायीसे अनायास सिद्ध हो जाता है । पाणिनिकी कमीको वार्तिककारने पूरी की और वातिककार भी जिन शब्दोंको सिद्ध करना भूल गये उनकी सिद्धि भाष्यकारने भाष्यवार्तिक बनाकर की है। लेकिन ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो सूत्रकार पाणिनि, वार्तिककार कात्यायन और भाष्यकार पतंजलिने सिद्ध किया हो और जैनेन्द्र पंचाध्यायीसे सिद्ध न होता हो। यह भी जैनेन्द्र व्याकरणकी महत्ताका प्रयोजक है। इसी प्रकार सम्पूर्ण जैन व्याकरणोंको महत्त्वशाली बनानेमें आचार्योंने पूरा-पूरा प्रयास किया है । भाषाके प्रचारसे अपनी संस्कृतिका प्रचार होता है। परकी संस्कृतिसे बचाव होता है। यह तत्त्व सर्वमान्य है और यही कारण है कि मुसलमान और यूरोपियन शासकोंने अपनी-अपनी भाषाओंको राजाश्रय दिया है । यदि ऐसा नहीं किया होता तो इनके साम्राज्यका वा जातीय महत्त्वका प्रचार ही नहीं हो पाता । यह तत्त्व आज ही नहीं, प्राचीन कालसे संस्कृतिकी रक्षाके लिये अत्यन्त उपयोगी माना गया है। हमारे आचार्योंने भी इसका उपयोग किया है, अतः हमारे यहाँ जितने आचार्य हुए हैं वे दार्शनिक हो या कवि सभीने आवश्यकता पड़नेपर जैन व्याकरणको ही अपनाया है। मुझे तो विश्वास है कि उन्होंने जैन व्याकरणके द्वारा ही संस्कृत भाषाका ज्ञान किया होगा। क्योंकि उन्होंने अपने ग्रन्थोंमें जगह-जगह जैन व्याकरणका उल्लेख किया है । अकलंक देव, प्रभाचन्द्राचार्य, विद्यानन्द स्वामी प्रभृति कम विद्वान नहीं थे, जिन्होंने जैन व्याकरणका पूरा-पूरा गौरव रखा। बात तो यह है कि उन्होंने उसके गौरव और ग्राह्यताको समझ लिया था। पं० आशाधरजी, कवि अर्हदासजी आदि, जो कि पूर्वाचार्योंकी अपेक्षासे वहुत अर्वाचीन है, जैन व्याकरणके सहारेपर ही उच्च विद्वान हुए, जिनकी मान्यता और जिनके ग्रन्थोंकी मान्यताको आज हम बड़े गौरव और उत्साहके साथ उल्लिखित करते हैं। अब हम समझ सकते हैं कि कितनी उपादेयता जैन व्याकरणमें भरी हई है। हमारे पूज्य आचार्यों ने व्याकरण इसलिये नहीं बनाया था कि हम लोग उसको व्यवहृत करना भूल जावेंगे, किन्तु उसका ध्येय, भाषा और भावका, जो बोध्य-बोधक सम्बन्ध है और वैय्याकरण भी अपने ही धर्म सम्बन्धी उदाहरणोंसे व्याकरणके नियमोंका विकास करता हुआ जो श्रद्धाका भाव पुष्टि करता है उसके प्रचारका था। जैसे आप जब अन्य काव्य पढ़ते हैं उससे उसके कर्ता कविके विचारोंका आपपर असर पड़ता है वैसे ही आप अन्य व्याकरण पढ़ते हैं उस समय भी अन्यके विचारोंका अनायास ग्रहण होता है । उदाहरणके लिये पाणिनीय व्याकरणमें 'रमन्ते योगिनो यस्मिन्निति रामः ।' जैनेन्द्र व्याकरणमें 'सांसारिकसूख-दुःखतः उत्तमे मोक्षसुखे धरतीति धर्मः' आदि-आदि उदाहरणोंमें कितना धार्मिक भाव भरा हआ है, जिसका कि असर कोमल हृदय विद्यार्थीके अन्तःकरणपर पड़े बिना नहीं रह सकता है। यदि सब विषयके ग्रन्थ अपने होते तो अपनी संस्कृतिका भी अच्छा प्रचार हो सकता है। तथा विपुल साहित्यरूप कार्य देखकर अपनी समाज विद्वान कहला कर आदर्श समाजकी पदवीको प्राप्त हो सकती है। अन्यथा जिस प्रकार खजाना और सेनाका परस्पर अविनाभाव है। खजानेके रहनेपर ही सेनाका जीवननिर्वाह तथा सेनाके रहनेपर ही खजानेकी रक्षा हो सकती है उसी प्रकार जैनधर्ममें स्वसमय और परसमयका भी अविनाभाव है। जितने भी सिद्धान्तग्रन्थ हैं और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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