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________________ ५ / साहित्य और इतिहास : ५ समयसार की बेजोड़ व्याख्या करनेवाले आचार्य अमृतचन्द्र के कलश पद्य १२८, १२९, १३०, १३१ और १३२ से यही निर्णीत होता है कि आचार्य कुन्दकुन्दने समयसारकी रचनायें मुमुक्षु जीवके लिए मुक्तिकी प्राप्ति में भेदविज्ञानको प्रमुख स्थान दिया है । यहाँ उन कलशपद्योंको उद्धृत किया जाता है निजमहिमरतानां भेदविज्ञानशक्त्या, भवति नियतमेषां शुद्धतत्त्वापलंभः । अचलितमखिलान्यद्द्रव्यदूरे स्थितानां, भवति सति च तस्मिन्नक्षयः कर्ममोक्षः || १२८|| अर्थ - जो जीव निजमहिमामें रत है अर्थात् उस महिमाके जानकार हैं उन जीवोंको भेदविज्ञानके आधारपर नियमसे शुद्ध अर्थात् स्वतन्त्र स्वरूपका उपलम्भ (ज्ञान) होता है । ऐसे जीवोंके अन्य द्रव्योंसे सर्वथा दूर हो जानेपर अर्थात् पर-पदार्थों में अहम्बुद्धि और ममबुद्धिकी समाप्ति हो जानेपर कर्मोंका स्थायी क्षय हो जाता है । संपद्यते संवर एव साक्षात् शुद्धात्मतत्त्वस्य किलोपलंभात् । म भेदविज्ञानत एव तस्मात्तद्भेदविज्ञानमतीव भाव्यं ॥ १२९ ।। अर्थ- शुद्ध आत्मतत्वका ज्ञान हो जानेपर साक्षात् संवरका संपादन होता है । वह शुद्ध आत्मतत्वका ज्ञान भेदविज्ञानके आधारपर होता है, इसलिए जीवोंको भेदविज्ञानकी प्राप्तिका अभ्यास करना चाहिये । भावयेद्भेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया । तावद्यावत्पराच्च्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते ॥ १३०॥ अर्थ - उस भेद विज्ञानका आच्छिन्न धारासे तबतक अभ्यास करना चाहिये, जबतक वह जीवपरसे च्युत होकर अर्थात् परमें अहंकार और ममकार समाप्त करके ज्ञानमें प्रतिष्ठित होता है । भेदविज्ञानन सिद्धाः सिद्धाः ये किल अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल Jain Education International अर्थ -- जो कोई जीव सिद्ध हुए हैं, वे भेदविज्ञानसे ही सिद्ध हुए हैं और जो कोई जीव बद्ध हैं वे भेदविज्ञान के अभाव से ही बद्ध हैं । केचन । केचन ॥ १३१ ॥ | भेदज्ञानोच्छलनकलनाच्छुद्धतत्त्वोपलंभात्, रागग्राम प्रलयकरणात्कर्मणां संवरेण । विभ्रत्तोषं परमममला लोकमम्लानमेकं, ज्ञानं ज्ञाने नियतमुदितं शाश्वतोद्योतमेतत् ॥ १३२॥ अर्थ — जीवको भेदविज्ञानकी प्राप्ति होनेपर शुद्धतत्त्वका उपलम्भ अर्थात् ज्ञान होता है और इस प्रकार रागसमूहका विनाश हो जानेसे कर्मोंका संवर होनेपर तोषको प्राप्त उत्कृष्ट अमलप्रकाशवाला निर्दोष, अद्वितीय ज्ञान नियमसे उदित होकर शाश्वत प्रकाशमान होता है । समयसारकी रचनामें जो क्रम पाया जाता है उससे भी वही भाव प्रकट होता है । जो निम्नप्रकार है- प्रथम गाथामें आचार्य कुन्दकुन्दने जो सिद्धोंको नमस्कार किया है इससे मुमुक्षु जीवके अपने लक्ष्यका निर्धारण होता है । दूसरी गाथामें यह बतलाया है कि जो जीव अभेददृष्टिसे अपने अखण्ड स्वभावभूत ज्ञानमें और भेददृष्टिसे दर्शन, ज्ञान और चारित्र में सतत स्थिर रहें, उन्हें स्वसमय कहा जाता है । तथा जो जीव पुद्गलकर्मप्रदेशोंम स्थित अर्थात् पुद्गलकर्मोसे बद्ध होनेके कारण परपदार्थोंमें अहंबुद्धि और ममबुद्धि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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