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________________ ४ / दर्शन और न्याय : ८५ में लक्ष्य-लक्षणभावका प्रयोजक लक्ष्य और लक्षणवस्तुओंका एकाधारवृत्तित्वरूप सामानाधिकरण्यको मानना ठीक नहीं है। आत्मभूतलक्षण में उक्त सामानाधिकरण्यको लक्ष्य-लक्षणभावका प्रयोजक मानने में एक दोष यह भी है कि जब अनात्मभ तलक्षणमें भी लक्ष्यलक्षणभाव रहता है तो वहाँपर भी उसका प्रयोजक उक्त सामानाधिकरण्य भी रहना चाहिये, अन्यथा अनात्मभूतलक्षणमें लक्ष्य-लक्षणभावका अभाव मानना पड़ेगा। . यदि कहा जाय कि उक्त सामानाधिकरण्य लक्ष्य-लक्षणभावका प्रयोजक नहीं, किन्तु लक्षण ही आत्मभूतताका प्रयोजक है तो प्रथम तो लक्ष्य-लक्षणभावमें इसके माननेकी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है, दसरे लक्षणकी आत्मभतताका भी प्रयोजक उक्त सामानाधिकरण्य नहीं है, कारण अग्निका लक्षण उष्णता है उष्णताका आधार अग्नि है, यह तो ठीक है किन्तु अग्निको स्वका भी आधार मान करके सामानाधिकरण्यकी कल्पना युक्ति और अनुभवसे विरुद्ध जान पड़ती है । तीसरे, ऐसा सामानाधिकरण्य तो अनात्मभूतलक्षणमें भी रह सकता है क्योंकि जिस पुरुषके हस्तमें जो दण्ड रहता है वही दण्ड लक्षक होता है और वह भी उसी पुरुष का, वह दण्ड दूसरे पुरुषका लक्षक नहीं, तथा दूसरा दण्ड उस पुरुषका लक्षक नहीं, ऐसी हालतमें उस दण्डका आधार वह पुरुष है-जिस तरह कि उष्णताका आधार अग्नि होता है तथा उस पुरुषको स्वका आधार मान लेना चाहिये, जिस तरह कि अग्निको स्वका आधार मान लिया गया है, इस तरहसे लक्षणके आत्मभूत और अनात्मभूत दो भेद असंगत ठहरते हैं। इसलिये एकाधारवृत्तित्वरूप सामानाधिकरण्य लक्षणकी आत्मभूतताका भी प्रयोजक सिद्ध नहीं होता है। लक्षणके आत्मभूत और अनात्मभुत भेदोंका प्रयोजक अपृथक्पना और पृथक्पना है। उष्णताको अग्निसे कभी भी पृथक नहीं कर सकते, जबकि दण्ड और पुरुष दोनों पदार्थ पृथक् सिद्ध हैं। जैनियोंने स्वरूप-स्वरूपवान तथा गुण-गुणीमें तादात्म्यसम्बन्ध माना है। तादात्म्यका अर्थ भेद और अभेद है, स्वरूपस्वरूपबद्भाव, गुणगणिभाव भेदका नियामक है, कारण स्वरूप और स्वरूपवानमें तथा गण और गुणीमें भेद माननेसे ही स्वरूपस्वरूपवद्भाव और गुणगुणिभावकी कल्पना हो सकती है, अभेद माननेसे अग्नि स्वरूपवान या गुणी है और उष्णता उसका स्वरूप या गुण है ऐसा भान या कथन नहीं हो सकता हैं। अभेद मानते इसलिये हैं कि उष्णता अग्निका ही स्वरूप है अन्यका नहीं । उष्णताको छोड़कर अग्निकी स्वतंत्र सत्ता निर्धारित नहीं कर सकते. यही तादात्म्यसम्बन्धका अभिप्राय है। उष्णताका आधार अग्नि है या उष्णता अग्निका लक्षण है, यह कथन भी भेददृष्टिसे हो हो सकता है, अभेदकी अपेक्षासे आधाराधेयभाव या लक्ष्यलक्षणभावको कल्पना कदापि संभव नहीं। तादात्म्य रखनेवाली वस्तुओंमें भिन्नाधिकरणता भले ही आप न माने, लेकिन उनमें एकाधिकरणता संभव नहीं, अथवा एकाधिकरणता स्वरूपस्वरूपवद्भाव, गुणगुणिभाव; आधाराधेयभाव, लक्ष्यलक्षणभाव आदिकी नियामक नहीं, यह बात स्पष्ट हो चुकी है। अब हमको थोड़ा न्यायदीपिकाके शब्दोंपर भी ध्यान देना चाहिये । न्यायदीपिकाकारने लक्ष्यमिवचन और लक्षणधर्मवचन में सामानाधिकरण्यके अभावका प्रसंग बतलाया है, न कि लक्ष्यवस्तु और लक्षणवस्तुमें । इसलिये वह भी सामानाधिकरण्य एकार्थप्रतिपादकत्वरूप ही हो सकता है और वह आत्मभूत एवं अनात्मभूत दोनों तरहके लक्षणवाक्योंके लक्ष्यवचन और लक्षणवचनमें समानरूपसे पाया जाता है। जिस प्रकार 'सम्यज्ञानं प्रमाणं' यहांपर सम्यग्ज्ञानत्व प्रमाणका लक्षण है, इसलिये 'सम्यग्ज्ञानं यह पद लक्षणवचन है और प्रमाण लक्ष्य है, इसलिये 'प्रमाणं' यह पद लक्ष्यवचन है । ये दोनों वचन एकार्थके प्रतिपादक हैं क्योंकि सम्यग्ज्ञानवस्तुको छोड़कर प्रमाण कोई दूसरी वस्तु नहीं। इसी प्रकार 'दण्डी पुरुषः' यहांपर दडित्व (दण्ड) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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