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________________ ८२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ बहुधा विद्यालयोंमें इस स्थलपर “सामान्यवद्विषयत्वात्" के स्थानमें 'सामान्यविषयत्वात्' ऐसा पाठ सुधार दिया जाता है तथा अभी इस ग्रन्थका नवीन संस्करण कठनेराजीने निकाला है। उसमें तो "वत्" शब्दको बिलकुल निकाल दिया गया है। मेरी समझसे संशोधकोंका कर्तव्य होना चाहिये कि वे जिस पाठको अशुद्ध समझें उसका पाठान्तर कर दें, यह रीति बहुत ही आदरणीय मानी जा सकती है क्योंकि कहीं-कहींपर शुद्ध पाठको अशद्ध समझ कर निकाल देनेमें शद्ध पाठकी खोजके लिये बहत कठिनाई उठाना पड़ती है। ऊपर लिखा पाठ ही शुद्ध है। अभी तक जो हमारे विद्वान "वत्" शब्दको निकालकर अर्थ करते आ रहे हैं वह अशुद्ध है। इसका विचार करनेके लिये इस स्थलका अर्थ यहाँ लिखा जाता है। यहाँपर वादी वैशेषिक द्रव्यपदार्थको एक सिद्ध करना चाहता है। लेकिन वह पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन इन नवको द्रव्यपदका अर्थ स्वीकार करता है, इसलिये उससे प्रश्न किया गया है कि जब तुम द्रव्यपदके नव (नौ) अर्थ मानते हो तो एक द्रव्यपदार्थ कैसे सिद्ध होगा? इसके उत्तरमें वह कहता है कि 'द्रव्य' यह पद नौकी सामान्यसंज्ञा है। वह समझता है कि सामान्यसंज्ञाका वाच्य सामान्य ही हो सकता है, इसलिये द्रव्यपदका सामान्यरूप एक अर्थ सिद्ध होने में कोई बाधा नहीं हो सकती है । इसपर ग्रन्थकारने निम्न प्रकार बाधायें उपस्थित की है (१) सामान्यसंज्ञाका सामान्य विषय (वाच्य) नहीं होकर सामान्यवान विषय होता है क्योंकि जिस शब्दके श्रवणसे जिस पदार्थमें लोगोंकी प्रवृत्ति देखी जाती है उस शब्दका वही अर्थ माना जाता है । “द्रव्यमानय", "द्रव्यं पश्य" इत्यादि वाक्योंसे पृथिवी, जल आदि विशेषमें ही आनयन व देखनेरूप मनुष्योंकी प्रवृत्ति देखी जाती है, द्रव्यत्वसामान्यमें नहीं, इसलिये द्रव्यपदके द्रव्यत्वसामान्यवान् पृथिवी, जल आदि विशेष नौ पदार्थ ही अर्थ सिद्ध होंगे, एक सामान्यपदार्थ नहीं। (२) यदि द्रव्यपदका द्रव्यत्वसामान्य ही अर्थ माना जाय तो द्रव्यपदके श्रवणसे पृथिवी, जल आदि विशेषमें मनुष्योंकी प्रवृत्ति नहीं होना चाहिये, लेकिन होती है, इसलिये द्रव्यपदका द्रव्यत्वसामान्य अर्थ युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता है। (३) किसी तरहसे द्रव्यत्वसामान्य अर्थ मान भी लिया जाय, तो भी द्रव्यपदार्थ एक सिद्ध न होगा। इसका कारण ग्रन्थमें इस स्थलके आगे स्पष्ट किया गया है, यहाँपर उपयोगी न होनेसे नहीं लिखा है। मुझे आशा है कि अब अवश्य ही इन स्थलोंके अर्थ में सुधार किया जायगा और यदि मेरे लिखने में कोई त्रुटि होगी तो विद्वान पाठक मुझे अवश्य ही सूचित करेंगे। इस लेखपर स्व० ५० महेन्द्रकुमार जी जैन न्यायतीर्थ न्यायाध्यापक स्याद्वाद महाविद्यालय काशीने अपना अभिप्राय निम्न रूपमें प्रकट किया था। जैन मित्र(४ मई १९३३) में भाई बंशीधरजी व्याकरणाचायका "अर्थमें भल" शीर्षक लेख देखा । मैं पंडितजोकी इस उपयोगी चर्चाका अभिनन्दन करता हूँ। पं० खूबचन्द्र जी कृत न्यायदीपिकाकी हिन्दी टीका तथा पं० जीके अर्थका मिलान किया। इस विषयमें मेरे विचार निम्न प्रकार हैं न्यायदीपिकाकारने लक्षणके दो भेद किये हैं-(१) आत्मभूत, (२) अनात्मभूत । अनात्भूतलक्षणमें सामानाधिकरण्य होना जरूरी नहीं, क्योंकि वह लक्षण वस्तुस्वरूपमें मिला हुआ नहीं होता, भिन्न पदार्थ ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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