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________________ ४/ दर्शन और न्याय : ७५ ष्टतत्त्वोंकी शरीरबद्धताका कारण स्वभावसे भिन्न किसी दूसरी चीजको ही मानना युक्तियुक्त जान पड़ता है और इसीलिये सांख्यदर्शनमें त्रिगुणात्मक (सत्वरजस्तमोगुणात्मक) अचित् प्रकृतिको, वेदान्तदर्शनमें असत कही जानेवाली अविद्याको, मीमांसादर्शनमें चितशक्तिविशिष्ट तत्वोंमें विद्यमान अशुद्धि (दोष) को, ईश्वरकर्तृत्ववादी योग, न्याय और वैशेषिक दर्शनोंमें इच्छा, ज्ञान और कृति शक्तित्रयविशिष्ट ईश्वरको, जैनदर्शनमें अचित् कर्म (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि द्रव्योंका सजातीय पौद्गलिक वस्तुविशेष) को और बौद्धदर्शनमें विपरीताभिनिवेशस्वरूप अविद्याको उसका कारण स्वीकार किया गया है। इनमेंसे योग, न्याय और वैशेषिक दर्शनोंमें माना गया ईश्वर उनकी मान्यताके अनुसार चित्शक्तिविशिष्टतत्त्वोंके साथ असंबद्ध रहते हुए भी उनके मन, वचन और शरीर सम्बन्धी पुण्य एवं पापरूप कृत्योंके आधारपर सुख तथा दुःखके भोगमें सहायक शरीरके साथ उन्हें आबद्ध करता रहता है । शेष सांख्य आदि दर्शनोंमें चित्शक्तिविशिष्टतत्त्वोंकी शरीरबद्धतामें माने गये प्रकृति आदि कारण उन चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वोंके साथ किसी-न-किसी रूपमें संवद्ध रहते हुए ही उनके मन, वचन और शरीर सम्बन्धी पुण्य एवं पापरूप कृत्योंके आधारपर सुख तथा दुःखके भोगमें सहायक शरीरके साथ उन्हें आबद्ध करते रहते हैं। इसी प्रकार चित्शक्तिविशिष्टतत्त्वोंकी शरीरबद्धताकी जिस पूर्वपरम्पराका उल्लेख पहले किया जा चुका है उसकी संगतिके लिये योग, न्याय और वैशेषिक दर्शनोंमें ईश्वरको शाश्वत (अनादि और अनिधन) मान लिया गया है तथा एक जैनदर्शनको छोड़कर शेष सांख्य आदि सभी दर्शनोंमें चितशक्तिविशिष्टतत्वोंके साथ प्रकृति आदिके सम्बन्धको यथायोग्य अनादि अथवा ईश्वर या परमब्रह्मसे उनकी (चित्शवितविशिष्टतत्वोंकी) उत्पत्ति होनेके समयसे स्वीकार किया गया है । जैनदर्शनमें चित्शक्तिविशिष्टतत्वोंको शरीरबद्धतामें कारणभूत धर्मके सम्बन्धको तो सादि स्त्रीकार किया गया है परन्तु उनकी उस शरीरबद्धताको पूवोंक्त अविच्छिन्न परम्पराकी संगतिके लिये वहांपर (जैनदर्शनमें) शरीरसम्बन्धकी अविच्छिन्न अनादि परम्पराकी तरह उसमें कारणभूत कर्मसम्बन्धकी भी अविच्छिन्न अनादि परम्पराको स्वीकार किया गया है और इसका आशय यह है कि यदि चित्शक्तिविशिष्टतत्वोंकी शरीरबद्धतामें कारणभूत उक्त कर्मसम्बन्ध को अनादि माना जायगा तो उस कर्मसम्बन्धको कारण रहित स्वाभाविक ही मानना होगा, लेकिन ऐसा मानना इसलिये असंगत है कि इस तरहसे प्राणियोंके जन्म-मरण अथवा सुख-दुःखकी परंपरास्वरूप संसारका सर्वथा विच्छेदके अभावका प्रसंग प्राप्त होगा, जो कि सांख्य, वेदान्त, योग, न्याय, वैशेषिक, जैन और बौद्ध इन दर्शनों मेंसे किसी भी दर्शनको अभीष्ट नहीं है। मीमांसादर्शनमें जो प्राणियोंके जन्म-मरण अथवा सुःख-दुखकी परंपरारूप संसारका सर्वथा विच्छेद नहीं स्वीकार किया गया है उसका सबब यही है कि वह चितशक्तिविशिष्ट तत्त्वोंमें विद्यमान अशद्धि के सम्बन्धको अनादि होनेके सबब कारणरहित स्वाभाविक स्वीकार करता है । परन्तु जो दर्शन प्राणियोंके जन्म-मरण अथवा सुख-दुःखकी परम्परास्वरूप संसारका सर्वथा विच्छेद स्वीकार करते है उन्हें चित्शक्तिविशिष्टतत्त्वोंकी शरीरबद्धतामें कारणरूपसे स्वीकृत पदार्थके सम्बन्धको कारणसहित-अस्वाभाविक ही मानना होगा और ऐसा तभी माना जा सकता है जबकि उस सम्बन्धको सादि माना जायगा। यही सबब है कि जैनदर्शनमें मान्य प्राणियोंके जन्म-मरण अथवा सुख-दुःखकी परम्परास्वरूप संसारके सर्वथा विच्छेदको संगतिके लिये वहांपर (जैनदर्शनमें) शरीरसम्बन्धमें कारणभूत कर्मके सम्बन्धको तो सादि माना गया है और शरीरसम्बन्धकी पूर्वोक्त अनादि परम्पराकी संगतिके लिये उस कर्मसम्बन्धको भी अविच्छिन्न परम्पराको अनादि स्वीकार किया गया है । इसकी व्यवस्था जैनदर्शनमें निम्न प्रकार बतलायी गयी है जैनदर्शनमें कार्माणवर्गणा नामका चितृशक्तिसे रहित तथा रूप, रस गंध और स्पर्श गुणोंसे युक्त होनेके कारण पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु तत्त्वोंका सजातीय एक पौद्गलिक तत्त्व स्वीकार किया गया है। यह तत्त्व बहुत ही सूक्ष्म है और पृथ्वी आदि तत्त्वोंकी ही तरह नाना परमाणुपुंजोंमें विभक्त होकर समस्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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