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________________ ४/ दर्शन और न्याय : ७१ "श्रुतयो विभिन्नाः स्मृतयो विभिन्ना, नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् । धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां - महाजनो येन गतः स पन्थाः ।।" इस पद्यमें हमें चार्वाकदर्शनकी आत्माका स्पष्ट आभास मिल जाता है । इस पद्यका आशय यह है कि "धर्म मनुष्यके कर्तव्यमार्गका नाम है और वह जब लोककल्याणके लिये है तो उसे अखण्ड एकरूप होना चाहिये, नानारूप नहीं, लेकिन धर्मतत्त्वकी प्रतिपादक श्रुतियाँ और स्मृतियाँ नाना और परस्परविरोधी अर्थको कहने वाली देखी जाती है। हमारे धर्मप्रवर्तक महात्माओंने भी धर्मतत्त्वका प्रतिपादन एकरूपसे न करके भिन्न-भिन्न रूपसे किया है । इसलिये इनके (धर्मप्रवर्तक महात्माओंके) वचनोंको भी सर्वसम्मत प्रमाण मानना असंभव है । ऐसी हालतमें धर्मतत्त्व साधारण मनुष्यों के लिये गूढ़ पहेली बन गया है अर्थात् धर्मतत्त्वको समझने में हमारे लिये श्रुति, स्मृति या कोई भी धर्मप्रवर्तक सहायक नहीं हो सकता है। इसलिये धर्मतत्त्वकी पहेलीमें न उलझ करके हमें अपने कर्त्तव्यमार्गका निर्णय महापुरुषोंके कर्त्तव्यमार्गके आधारपर ही करते रहना चाहिये । तात्पर्य यह है कि महापुरुषोंका प्रत्येक कर्त्तव्य स्वपकल्याणके लिये ही होता है । इसलिये हमारा जो कर्तव्य स्वपरकल्याणविरोधी न हो उसे ही अविवादरूपसे हमको धर्म समझ लेना चाहिये।" मालूम पड़ता है कि चार्वाक दर्शनके आविष्कर्ताका अन्तःकरण अवश्य ही धर्मके बारेमें पैदा हुए लोककल्याणके लिये खतरनाक मतभेदोंसे ऊब चुका था। इसलिये उसने लोकके समक्ष इस बातको रखनेका प्रयत्न किया था कि जन्मान्तररूप परलोक, स्वर्ग और नरक तथा मक्तिकी चर्चा-जो कि विवादके कारण जनहितकी घातक हो रही है-को छोड़कर हमें केवल ऐसा मार्ग चुन लेना चाहिये जो जनहितका साधक हो सकता है और ऐसे कर्त्तव्यमार्गमें किसीको भी विवाद करने की कम गुंजाइश रह सकती है। "यावज्जीवं सुखी जावेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ।।" यह जो चार्वाक दर्शनकी मान्यता बतलाई जाती है वह कुछ भ्रममूलक जान पड़ती है अर्थात् यह उन लोगोंका चार्वाकदर्शनके बारेमें आक्षेप है जो सांप्रदायिक विद्वेषके कारण चार्वाकदर्शनको सहन नहीं कर सकते थे। समस्त दर्शनोंमें बीजरूपसे इस उपयोगितावादको स्वीकार लेने पर ये सभी दर्शन जो एक-दूसरेके अत्यन्त विरोधी मालूम पड़ रहे हैं, ऐसा न होकर अत्यन्त निकटतम मित्रोंके समान दिखने लगेंगे अर्थात् उक्त प्रकारसे चार्वाक दर्शनमें छिपे हए उपयोगितावादके रहस्यको समझ लेनेपर कौन कह सकता है कि उसका (चार्वाकदर्शनका) परलोकादिके बारेमें दूसरे दर्शनोंके साथ जो मतभेद है वह खतरनाक है क्योंकि जहाँ दूसरे दर्शन परलोकादिको आधार मानकर हमें मनुष्योचित कर्तव्यमार्ग पर चलनेकी प्रेरणा करते हैं वहाँ चार्वाक दर्शन सिर्फ वर्तमान जीवनको सुखी बनाने के उद्देश्यसे ही हमें मानवोचित कर्त्तव्यमार्गपर चलनेकी प्रेरणा करता है। चार्वाकदर्शनकी इस मान्यताका दूसरे दर्शनोंकी मान्यताके साथ समानतामें हेतु यह है कि परलोकादिके अस्तित्वको स्वीकार करने के बाद भी सभी दर्शनकारोंको इस वैज्ञानिक सिद्धान्त पर आना पड़ता है कि "मनुष्य अपने वर्तमान जीवनमें अच्छे कृत्य करके ही परलोकमें सुखी हो सकता है या स्वर्ग पा सकता है।" इसलिये चार्वाक मतका अनुयायी यदि अपने वर्तमान जीवनमें अच्छे कृत्य करता है तो परलोक या स्वर्गके अस्तित्वको न मानने मात्रसे उसे परलोकमें सुख या स्वर्ग पानेसे कौन रोक सकता है ? अन्यथा इसी तरह नरकका अस्तित्व न माननेके सबब पाप करनेपर भी उसका नरकमें जाना कैसे संभव हो सकेगा? तात्पर्य यह है कि एक प्राणो नरकके अस्तित्वको न मानते हुए भी बुरे कृत्य करके यदि नरक जा सकता है तो दूसरा प्राणी स्वर्गके अस्तित्वको न मानते हुए अच्छे कृत्य करके स्वर्ग भी जा सकता हैं। परलोक तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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