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________________ ४ / दर्शन और न्याय : ६५ द्रव्ये, गुणे च स्वरसत एवानादित एव वृत्तः स खलु अचलितस्य वस्तुस्थितिसीम्नो भेत्तुमशक्यत्वात्तस्मिन्नेव वर्तते न पुनः द्रव्यान्तरं गुणान्तरं वा संक्रामेत् ।" गाथा और टीकाका भाव यह है कि कोई भी वस्तु सर्वदा अपनी ही द्रव्यरूपता और अपनी ही गुणरूपता में वर्तमान रहती है, त्रिकालमें कभी भी दूसरी वस्तुकी द्रव्यरूपता व गुणरूपतामें संक्रमण नहीं करती है । इसी प्रकार उक्त सिद्धान्तके आधारपर ही आचार्य श्री अमृतचन्द्रके निम्नलिखित कथनकी संगति बैठती है " ततः सर्वत्रापि धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवद्रव्यात्मनि लोके ये यावन्तः केचनाप्यर्थास्ते सर्व एव स्वकीयद्रव्यान्तर्मग्नस्वधर्मचक्रचुंविनोऽपि परस्परमचुंविनोऽत्यन्तप्रत्यासत्तावपि नित्यमेव स्वरूपादपतन्तः पररूपेणापरिणमनादनष्टानन्तव्यक्तित्वात्कीर्णा इव तिष्ठन्तः " ( समयसार गाथा ३ की आत्मख्यातिटीका) । अर्थ --- धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव द्रव्यमय संपूर्ण लकमें जितने परिमाणमें जो कुछ पदार्थ हैं वे सभी अपने-अपने धर्मं समूहका चुम्बन करते हुए भी एक दूसरे पदार्थका चुम्बन नहीं कर रहे हैं, यद्यपि सभी पदार्थ एक दूसरे पदार्थसे अत्यन्त संयुक्त हो रहे हैं तो भी वे कभी अपने स्वरूपसे च्युत नहीं होते -- इस तरह पररूपसे परिणत न होनेके कारण उनकी नियत परिमाणरूप अनन्तता कभी नष्ट नहीं हो सकती है इसलिए जैसे टांकीसे ही उत्कीर्ण किये गये हों ऐसे ही अपनी-अपनी अलग-अलग सत्ता रखते हुए नियत अनन्त संख्या के रूपमें ही वे सब रह रहे हैं । इस तरह कहना चाहिए कि "विश्वके जितने परिमाण में अनन्तसंख्याके पदार्थ हैं वे उतने परिमाण में ही अनादि अनन्तकाल तक रहनेवाले हैं उनकी उस संख्या में कभी भी घटा बढ़ी नहीं होती है" इस मान्यताकी पुष्टि "जो ही वह है वही वह नहीं है" इस अनेकान्तकी स्वीकृति के आधारपर ही हो सकती है । आचार्य श्री अमृतचन्द्रने दूसरे प्रकारका अनेकान्त यह बतलाया है कि “जो ही एक है वही एक नहीं है अर्थात् अनेक है" । • इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि वस्तुकी द्रव्यात्मकता, गुणात्मकता और पर्यायात्मकता के आधारपर "अत्थो खलु दव्बमयो" इत्यादि गाथाके अनुसार प्रत्येक वस्तुके अलग-अलग प्रकार से दो दो अंश निर्धारित होते हैं । उनमें एक प्रकारसे दो अंश हैं -- द्रव्यांश और गुणांश, दूसरे प्रकारसे दो अंश हैं - द्रव्यांश और पर्यायांश तथा तीसरे प्रकारसे दो अंश हैं - गुणांश और पर्यायांश । प्रत्येक वस्तुका द्रव्यांश एक ही रहा करता है लेकिन इसमें गुणांश नाना रहा करते हैं । जैसे आत्मा एक वस्तु है । परन्तु उसमें ज्ञानदर्शन आदि नाना गुणोंका सद्भाव हैं । इसी तरह पुद्गल एक वस्तु है । परन्तु उसमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि नाना गुणों का सद्भाव है । इसी प्रकार दूसरे प्रकारसे यों कहा जा सकता है कि वस्तुका द्रव्यांश हमेशा एक ही रहा करता है परन्तु उसमें बदलाहट होती रहती है जिससे पर्यायांश अनेक हो जाते हैं । जैसे आत्मा यद्यपि नियत असंख्यात प्रदेशी एक द्रव्य है परन्तु छोटे-बड़े शरीरके अनुसार उसकी छोटो बड़ी आकृति होती रहती है । इसी तरह प्रत्येक वस्तुमें विद्यमान उसके अपने-अपने नाना गुणों से प्रत्येक गुण भी अपनेमें परिवर्तन करता रहता है। जैसे आत्मा ज्ञान स्वभाव वाला नियत है परन्तु उसका वह ज्ञानरूप स्वभाव यथायोग्य मति, श्रुत, अवधि मन:पर्यय और केवलके भेदसे पाँचरूपसे परिमन कर सकता है । इसी तरह मति आदि ज्ञान भी यथायोग्य इन्द्रियादिक साधन व विषयभूत पदार्थको विविधताके आधारपर परिणमन करते रहते हैं । इस प्रकार आत्माका एक ज्ञानरूप स्वभाव भी उपर्युक्त ४-९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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