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________________ ४ / दर्शन और न्याय : ५९ भी क्रमसे पूर्वपर्याय और उत्तरपर्यायका रूप स्वीकार करना चाहिये । यदि सर्वज्ञकी सर्वज्ञताकी समाप्तिके भयसे उसके दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगमें क्रमसे पूर्वपर्याय और उत्तरपर्यायका रूप नहीं स्वीकार करके दोनोंकी एक ही साथ उत्पत्ति और अवस्थिति स्वीकार कर ली जाती है तो दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगमें क्रमसे पूर्वपर्यायता और उत्तरपर्यायताका अभाव निश्चित हो जाने की वजहसे अल्पज्ञके दर्शनोपयोगको उसकी पूर्वपर्याय और ज्ञानोपयोगको उसकी उत्तरपर्याय कैसे कहा जा सकता है ? वास्तवमें जीवकी देखने और जानने रूप दो पृथक-पृथक शक्तियाँ हैं। यही सबब है कि दोनों शक्तियोंको ढकनेवाले दर्शनावरण और ज्ञानावरण दो पृथक्-पृथक कर्मजैन कर्मसिद्धान्तमें स्वीकार किये गये हैं । इन्हीं दोनों शक्तियोंके पुथक-पृथक् विकास ही दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगके नामसे पुकारे जाते हैं, इसलिये दर्शनोपयोगको जीवकी पूर्वपर्याय और ज्ञानोपयोगको उसकी उत्तरपर्याय मानना अयुक्त है। यदि ये दोनों एक ही शक्तिके दो विकास होते, तो इन्हें अवश्य ही पूर्वपर्याय और उत्तरपर्यायके रूपमें स्वीकार किया जा सकता था परन्तु पूर्वोक्त प्रकारसे न तो ये एक ही शक्तिके दो विकास सिद्ध होते हैं और न इन्हें एक ही शक्तिके दो विकासके रूप में स्वीकार ही किया गया है इसलिये जब दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगमें कार्यकारणभाव मान्य है तो सर्वज्ञकी तरह अल्पज्ञोंमें भी इनका एक ही साथ सद्भाव रहना उपयुक्त है ? शंका-सर्वज्ञके दर्शन और ज्ञान सर्वथा निरावरण हो जानेकी वजहसे अपने आपमें परिपूर्ण और परावलंबनसे रहित है अतः दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग दोनोंके एक साथ होने या रहनेमें कोई बाधा नहीं आती है । परन्तु अल्पज्ञके दर्शन और ज्ञान जब अपने आपमें पूर्णतारहित एवं यथायोग्य समान परावलम्बी पाये जाते हैं तो उनका एक साथ पैदा होना या रहना कैसे संभव हो सकता है ? अतः सर्वज्ञके एक साथ दोनों उपयोगोंका सदभाव मानना और अल्पज्ञके दोनोंका एक साथ अभाव स्वीकार करना अयुक्त नहीं है ? समाधान-यदि जीवमें दो उपयोग एक साथ रहनेकी योग्यता है तो अल्पज्ञता उसमें बाधक नहीं हो सकती है और यदि जीवमें दो उपयोग एक साथ रहनेकी योग्यता नहीं है तो सर्वज्ञता उसमें साधक नहीं हो सकती है। जैसे एक ही दर्शनशक्ति या ज्ञानशक्तिके विकास स्वरूप दो उपयोग एक साथ रहनेकी योग्यता जीवमें नहीं है तो इस प्रकारके दो उपयोग एक साथ सर्वज्ञमें भी संभव नहीं हो सकते हैं । इसका मतलब यह हुआ कि सर्वज्ञके भी प्रतिक्षण जो संपूर्ण पदार्थोंका दर्शन और ज्ञान होता रहता है वह दर्शन और ज्ञान अनन्त पदार्थोंका होते हुए भी पृथक-पृथक् अनन्त उपयोग रूप नहीं होता, अपितु अनन्त पदार्थोको विषय करनेवाला एक ही दर्शनरूप उपयोग और एक ही ज्ञानरूप उपयोग होता है। इसी प्रकार जीवकी एक ही श्रद्धाशक्ति, एक ही चारित्रशक्ति, एक ही सुखशक्ति, एक ही वीर्यशक्ति आदि अनन्त शक्तियोंका पृथक्-पृथक् दो तरहका विकास सर्वज्ञके भी एक साथ संभव नहीं है । परन्तु जीवमें अनन्त प्रकारकी उक्त जितनी शक्तियाँ पायी जाती हैं वे सब अपने-अपने पृथक्-पृथक् एक-एक विकसित रूपमें सर्वज्ञ और अल्पज्ञ सब अवस्थाओंमें एक साथ पायी जाती हैं और पायी जाना उचित भी है क्योंकि जो भी शक्ति अपने किसी एक विकसित रूपके साथ एक अवस्थामें नहीं पायी जायगी, तो उस शक्तिका जीवकी सब अवस्थाओंमें अभाव मानना अनिवार्य हो जायगा । इसलिये सर्वज्ञको तरह अल्पज्ञ जीवमें जब ज्ञानशक्तिके किसी-न-किसी विकसित रूपके साथ श्रद्धाशक्ति, चारित्रशक्ति, सुखशक्ति, वीर्यशक्ति आदि अनन्त शक्तियोंका अपना अपना कोई-न-कोई विकसित रूप सर्वदा विद्यमान रहता ही है, तो इन सबके साथ दर्शनशक्तिका भी कोई-न-कोई विकसित रूप उसमें अवश्य ही सर्वदा विद्यमान रहना चाहिये । जोवकी प्रत्येक शक्तिका इस प्रकार अपने अपने किसी-न-किसी विकसित रूपमें रहने का नाम ही उपयोग है। यहांपर यह बात भी ध्यानमें रखना आवश्यक है कि जिस प्रकार सर्वज्ञके केवलज्ञानमें केवलदर्शन कारण हुआ करता है उसी प्रकार अल्पज्ञके अवधिज्ञानमें अवधिदर्शनको तथा उस उस इन्द्रियसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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