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________________ ४/ वर्शन और न्याय : ५७ परंपरया कारण होता है क्योंकि दर्शन और इन ज्ञानोंके मध्य अन्य ज्ञानोंका व्यवधान रहा करता है जैसा कि पूर्वमें बतलाया जा चुका है कि दर्शन और स्मृतिके मध्य धारणाज्ञानका व्यवधान होता है क्योंकि स्मतिजान धारणाज्ञानपूर्वक होता है, दर्शन और प्रत्यभिज्ञानके मध्य धारणाज्ञानके अनन्तर पश्चात् होनेवाले स्मतिज्ञानका व्यवधान रहा करता है क्योंकि प्रत्यभिज्ञान स्मतिज्ञान पर्वक होता है, दर्शन और तर्क ज्ञानके मध्य स्मृतिज्ञानके अनन्तर पश्चात् होने बाले प्रत्यभिज्ञानका व्यवधान रहता है क्योंकि तर्कज्ञान प्रत्यभिज्ञान पूर्वक होता है, दर्शन और अनुमान ज्ञानके मध्य प्रत्यभिज्ञानके अनन्तर पश्चात् होने वाले तक ज्ञानका व्यवधान रहता है क्योंकि अनुमानज्ञान तर्कज्ञान पूर्वक होता है और दर्शन और श्रुतज्ञानके मध्य तर्क ज्ञानके अनन्तर पश्चात् होनेवाले अनुमान ज्ञानका व्यवधान रहता है क्योंकि श्रुतज्ञान अनुमान पूर्वक होता है, इसलिये ये स्मृति आदि ज्ञान इस दृष्टिसे परोक्ष कहलाते हैं। इस विवेचनसे यह बात बात अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है कि एक तो पदार्थदर्शन पदार्थज्ञानमें अनिवार्य कारण होता है और दूसरे पदार्थदर्शनको साक्षात् कारणता पदार्थ ज्ञानकी प्रत्यक्षाका और पदार्थदर्शनकी असाक्षात कारणता अर्थात परंपरया कारणता पदार्थ ज्ञानकी परोक्षताका आधार है. इसलिये दर्शनोपयोगका महत्त्व प्रस्थापित हो जाता है और तब इस प्रश्नका भी समाधान हो जाता है। कि एक ज्ञान प्रत्यक्ष और दूसरा ज्ञान परोक्ष क्यों है ? अब यहाँ पर एक बात और विचारणीय रह जाती है कि जिस प्रकार दर्शन और स्मृति, प्रत्यभिज्ञान तर्क, अनुमान और श्रुतनामके ज्ञानोंके मध्य पूर्वोक्त प्रकार यथासम्भव धारणा आदि ज्ञानोंका व्यवधान रहता है उसी प्रकार जब ईहाज्ञान अवग्रहपूर्वक होता है, अबायज्ञान ईहाज्ञानपूर्वक होता है और धारणाज्ञान अवायज्ञानपूर्वक होता है, तथा इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञान भी ईहाज्ञानपूर्वक ही होता है तो अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाज्ञानोंमें तथा मनःपर्ययज्ञानमें भी दर्शनके साथ यथासम्भव अन्य ज्ञानोंका व्यवधान सिद्ध हो जाने से इन्हें प्रत्यक्ष कैसे कहा जा सकता है ? इसका उत्तर यह है कि यद्यपि ईहाज्ञानमें अवग्रहज्ञानकी कारणता, अवायज्ञानमें ईहाज्ञानकी कारणता, धारणाज्ञानमें अवायज्ञानकी कारणता और मनःपर्ययज्ञानमें भी ईहाज्ञानकी कारणता विद्यमान है अर्थात् ये सब ज्ञान इनके पश्चात् ही होते हैं फिर भी पूर्वोक्त दर्शन इन ज्ञानोंमें साक्षात् ही कारण होता है अर्थात् दर्शन और इन ज्ञानोंके मध्य वे अवग्रह आदि ज्ञान व्यवधानकारक नहीं होते हैं इसलिये इन ज्ञानोंमें दर्शनकी साक्षात् कारणताकी सिद्धि में कोई बाधा नहीं उत्पन्न होती है । अतः इन ज्ञानोंकी प्रत्यक्षतामें भी इस दृष्टिसे कोई बाधा नहीं उत्पन्न होती है। ___ यहाँ प्रसंगवश मैं इतना और कह देना चाहता हूँ कि कहीं-कहीं (अभ्यस्त दशामें) अवग्रहज्ञान अवायात्मक रूपमें ही उत्पन्न होता है और कहीं-कहीं (अनभ्यस्त दशामें) अवग्रहज्ञानके पश्चात संशय उत्पन्न होने पर ईशाज्ञान उत्पन्न होता है और तब वह अवग्रहज्ञान अवायज्ञानका रूप धारण करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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