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________________ ४ / दर्शन और न्याय : ४९ जीवकी भावती शक्तिमें विशेषता प्रत्येक जीवकी भाववतीशक्ति अनादिकालसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वीर्यान्तराय नामके पौद्गलिक कर्मोंसे प्रभावित होकर रहती आयी है, परन्तु अनादिकालसे ही प्रत्येक जीवमें उक्त तीनों कर्मोंका नियमसे यथायोग्यरूपमें क्षयोपशम रहनेके कारण वह भाववती शक्ति भी यथायोग्यरूपमें विकासको प्राप्त होकर रहती आयी है। प्रत्येक जीवकी भाववतीशक्तिका यह विकास ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमके आधारपर ज्ञानशक्तिके रूपमै दर्शनावरणकर्मके क्षयोपशमके आधारपर दर्शनभक्तिके रूपमें और वीर्यान्तरायकर्मके क्षयोपशमके आधारपर वीर्यशक्तिके रूपमें रहता आया है । यहाँ इतना विशेष समझ लेना चाहिये कि जिन जीवोंमें समस्त ज्ञानावरण, समस्त दर्शनावरण और वीर्यान्तराय कर्मोंका पूर्ण क्षय हो चुका है उनमें उनकी उस भाववतीशक्तिका ज्ञानशक्ति, दर्शनशक्ति और वीर्यशक्तिके रूपमें पूर्ण विकास हो चुका है व जिन जीवोंमें उक्त समस्त ज्ञानावरण, समस्त दर्शनावरण और वीर्यान्तराय कर्मोका आगे जब पूर्ण क्षय हो जायगा तब उनमें भी उनकी उस भाववतीशक्तिका ज्ञानशक्ति, दर्शनशक्ति और वीर्यशक्तिके रूप में पूर्ण विकास हो जायगा। यद्यपि जीवको भाववतीशक्तिपर दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय और उपभोगान्तराय कर्मोंका भी अनादिकालसे प्रभाव पड़ रहा है और अनादिकालसे इन कर्मोंका भी क्षयोपशम रहनेके कारण प्रत्येक जीवमें उस भाववतीशक्तिका दानशस्ति, लाभशक्ति, भोगशक्ति और उपभोगशक्तिके रूपमें यथायोग्य विकास भी अनादिकालसे रहता आया है, परन्तु इन दानादि चारों शक्तियोंका सम्बन्ध जीवकी क्रियावतीशक्तिके साथ होने के कारण यहाँ इनको उपेक्षित किया जा रहा है। ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगका स्वरूप जीवकी विकासको प्राप्त ज्ञानशक्ति, दर्शनशक्ति और वीर्यशक्ति-इन तीनों शक्तियोंमेंसे ज्ञानशक्तिका कार्य जीवको स्व और अन्यपदार्थोंका विशेष अवलोकन अर्थात् ज्ञान करानेका है, दर्शनशक्तिका कार्य जीवको स्व और अन्यपदार्थोंका सामान्य अवलोकन अर्थात दर्शन करानेका है और वीर्यशक्तिका कार्य उक्त ज्ञानशक्ति और दर्शनशक्तिके कार्य में जीवको यथायोग्यरूपमें सक्षम बनानेका है। इस तरह जीवकी विकसित ज्ञानशक्तिका जो स्व और अन्य पदार्थों का विशेष अवलोकन अर्थात् ज्ञान होने रूप कार्य है उसका नाम ज्ञानोपयोग है और उसकी विकसित दर्शनशक्तिका जो स्व और अन्यपदार्थों का सामान्य अवलोकन अर्थात् दर्शन होनेरूप कार्य है उसका नाम दर्शनोपयोग है। विशेष अवलोकन और सामान्य अवलोकनका अर्थ यहाँपर ज्ञानोपयोग और वर्शनोपयोगके स्वरूप-निर्देशनमें जो यह बतलाया गया है कि जीवकी विकसित ज्ञानशक्तिका स्व और अन्यपदार्थोंका विशेष अवलोकन अर्थात ज्ञान होने रूप कार्य तो ज्ञानोपयोग है व उसकी विकसित दर्शनशक्तिका स्व और अन्यपदार्थोंका सामान्य अवलोकन अर्थात् दर्शन होने रूप कार्य दर्शनोपयोग है। इसमें विशेष अवलोकन अर्थात ज्ञानका अर्थ जीव द्वारा दीपककी तरह स्व और अन्य पदार्थोंको प्रतिभासित किया जाना है और सामान्य अवलोकन अर्थात दर्शनका अर्थ जीवमें दर्पणकी तरह स्व और अन्यपदार्थोंका प्रतिबिम्बित होना है, जिसका तात्पर्य यह होता है कि जिस प्रकार दीपकका स्वभाव स्व और अन्यपदार्थोंको प्रतिभासित करनेका है उसी प्रकार जीवका स्वभाव भी स्व और अन्य पदार्थोंको प्रतिभासित करनेका है तथा जिस प्रकार दर्पणका स्वभाव स्व और अन्यपदार्थोंको अपने अन्दर प्रतिबिम्बित करनेका है उसी प्रकार जीवका स्वभाव भी स्व और अन्यपदार्थोंको अपने अन्दर प्रतिविम्बित करनेका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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