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________________ ४ | दर्शन और न्याय : ४५ पपिवासनाओंका अंकूर जन्मा. वहींसे धर्मतत्व प्रकाशमें आया। तात्पर्य यह कि अनुचित पापवासनाओंसे लोगोंकी अनुचित पापोंमें प्रवृत्ति होने लगी, उसको हटा नेके लिये तात्कालिक महापुरुषोंने पापप्रवृत्तिके त्यागरूप व्यवस्था बनाई, उसीको धर्मका रूप दिया गया। सुख और शान्तिके सहायक नियम या धार्मिक नियम वैसे-वैसे ही बढ़ते गये, जैसे-जैसे उनके प्रतिबन्धक निमित्तोंका प्रादुर्भाव होता गया। इसके अतिरिक्त विविध लोगोंकी विवेकबुद्धिने भी काम किया, जिससे देशकालके अनसार नानाप्रकारके धार्मिक नियम बने और उनकी उपादेयताके लिये भिन्न-भिन्न प्रका महत्त्व दर्शाया गया। तात्पर्य यह कि धीरे-धीरे धर्मोंमें विविधता पैदा हुई। इस धर्मविविधताके कारण भिन्नभिन्न समष्टियोंकी रचना हुई । उन समष्टियोंमें कालक्रमसे अपनेको सत्यमार्गानुगामी और दूसरोंको असत्यमार्गानुगामी ठहरानेकी कुत्सित ऐकान्तिक भावनाये जागृत हुईं। यहींसे दर्शनशास्त्रका कलेवर पुष्ट हुआ, जिससे बल पर लोगोंने स्वपक्षपुष्टि और परपक्ष-खण्डनमें कालयापन करना प्रारम्भ किया, जिससे विरोधरूपी अन्धकारसे लोक व्याप्त हो गया। उसका अन्त करनेके लिये स्याद्वादरूपी सूर्य का उदय हुआ। स्याद्वादकी जैनधर्माङ्गता स्याद्वादतत्त्वका विकास उन महापुरुषोंकी तर्कणाशक्तिका फल है, जिन्होंने समय और परिस्थितिके अनसार निर्मित धार्मिक नियमोंके परस्पर समन्वय करनेकी कोशिश की थी, तथा इसमें उनको आश्चर्यजनक सफलता भी मिली थी। पर लोकहितभावनामें स्वार्थभावनाका समावेश हो जानेसे उसकी धारा एक देशमें ही रह गई। वे महापुरुष जैन थे, इसलिये कालान्तरमें स्यावाद जैनधर्मका मूल बन गया, दूसरोंको स्याद्वादके नामसे घृणा हो गई। जैनाचारमें स्याद्वाद ___इसके विषयमं अमृतचन्द्र सूरिने हिंसाके विषयमें स्याद्वादका जो भावपूर्ण चित्रण किया है वही पर्याप्त होगा । वे कहते हैं "कोई मनुष्य हिंसा नहीं करके अर्थात् प्राणियोंको नहीं मार करके भी हिंसाके फलको पाता है, जबकि दूसरा मनुष्य हिंसा करके भी हिंसाके फलको नहीं पाता है। एक मनुष्यको अल्प हिंसा महान् फल देती है जबकि दूसरे मनुष्यको अधिक हिंसा भी अल्प फल देती है। समान हिंसा करनेवाले दो पुरुषोंमेंसे एक को वह हिंसा तीव्र फल देती है और दूसरेको वही हिंसा मंद फल देती है । किसीको हिंसा करनेके पहले ही हिंसाका फल मिल जाता है और किसीको हिंसा करनेके बाद हिंसाका फल मिलता है। किसीने हिंसा करना प्रारम्भ किया, लेकिन बादमें बन्द कर दिया तो भी हिंसा करनेके भाव हो जानेसे हिंसाका फल मिलता है। किसी समय हिंसा एक करता है, उसका फल अनेक भोगते हैं । किसी समय हिंसक अनेक होते हैं और फल एकको भोगना पड़ता है । किसीकी हिंसा हिंसाका अल्पफल देती है किसीकी वही हिंसा अहिंसाका अधिक फल देती है। किसीकी अहिंसा हिंसाका फल देती है, किसीकी हिंसा अहिंसाके फलको देती है। इस प्रकार विविध प्रकारके भङ्गोंसे दुस्तर हिंसा आदिके स्वरूपको समझानेके लिये स्याद्वादतत्त्वके वेत्ता ही समर्थ होते हैं ।" राजनैतिक दण्डव्यवस्था भी इसी आधारपर बनी हुई है, जिससे हिंसा आदिके विषय में स्याद्वादका स्वरूप अच्छी तरह समझमें आ सकता है। १. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक ५१ से ५८ तक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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