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________________ ४ / दर्शन और न्याय : ३७ नहीं हो पाता है क्योंकि उस ग्रहण में अंशमुखेन वस्तुका ही ग्रहण होता है, वस्तुके अंशका नहीं। जैसे चक्षुरिन्द्रिय द्वारा रूपमुखसे रूपवान् वस्तुका ही ग्रहण होता है, वस्तुके एक अंशके रूपमें रूपका ग्रहण नहीं होता यही कारण है कि अंशमुखेन वस्तुका ग्रहण होता हुआ भी वस्तुके अंशका अंशरूप से ग्रहण न होनेसे मतिज्ञान निरंश प्रमाण ही मानने योग्य है। यही बात क्षायोपशमिकज्ञानरूप अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानके विषय में भी समझ लेना चाहिये इस तरह ये तीनों ज्ञान कभी नयरूपताको प्राप्त नहीं होते हैं केवलज्ञान में वस्तुका ग्रहण सर्वात्मना होता है, इसलिये उसकी प्रमाणरूपता निर्विवाद है। लेकिन उसमें वस्तु के सम्पूर्ण अंश युगपत् गृहीत होनेके कारण पृथक-पृथक रूपमें गृहीत नहीं होते, इसलिये उसमें भी नयरूपताका अभाव सिद्ध हो जाता है | श्रुतज्ञानमें प्रमाणरूपता इसलिये सिद्ध होती है कि उसमें उल्लिखित अनेकान्तरूप पूर्ण वस्तुका ग्रहण होता है लेकिन चूँकि श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति पूर्वोक्त प्रकारसे सांश वचनके आधारपर हुआ करती है । अतः जिस वचन अंशी (पूर्ण) रूप वस्तुका ग्रहण होता है उसे तो प्रमाणरूप सांश वचन जानना चाहिये और जिस वचनसे अंशरूप वस्तुका ग्रहण होता है उसे नयरूप अंशात्मक वचन जानना चाहिये । तथा इस तरहके प्रमाणरूप और नयरूप वचनोंके आधारपर उत्पन्न होनेवाले श्रुतरूप ज्ञानको भी क्रमशः प्रमाणरूप और नयरूप जानना चाहिये । अप्रमाण रूप श्रुतज्ञानमें नयव्यवस्थाका निषेध क्यों ? पूर्व में यह बात स्पष्ट की जा चुकी है कि जिस प्रकार सांश वचनके आधारपर उत्पन्न होनेके कारण प्रमाणरूप श्रुतज्ञान में सांशता सिद्ध होती है उसी प्रकार सांश वचनके आधारपर उत्पन्न होनेके कारण अप्रमाणरूप श्रुतज्ञानमें भी सांशता सिद्ध होती है। इसलिये जिस प्रकार प्रमाणरूप श्रुतज्ञानमें नयव्यवस्थाका सद्भाव सिद्ध होता है उसी प्रकार अप्रमाणरूप श्रुतज्ञानमें भी नयव्यवस्थाका सद्भाव सिद्ध होने का प्रसंग उपस्थित होता है, लेकिन आगमप्रमाणके आधारपर पूर्वमें यह बतलाया जा चुका है कि अप्रमाणरूप श्रुतज्ञानमें नयव्यवस्था नहीं होती है। इससे सहज ही यह निष्कर्ष निकल आता है कि सांशवचनके आधारपर उत्पन्न होनेकी समानता रहते हुए भी अप्रमाणरूप श्रुतज्ञानकी अपेक्षा प्रमाणरूप श्रुतज्ञानमें ऐसी विशेषता पायी जाती है जो उसमें नयव्यवस्थाका कारण बन जाती है और चूंकि वह विशेषता अप्रमाणरूप श्रुतज्ञानमें नहीं पायी जाती है, अतः उसमें नयव्यस्थाका निषेध संगत हो जाता है । वह विशेषता यह है कि पूर्वोक्त प्रकारसे प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक ही सिद्ध होती है अर्थात् प्रत्येक वस्तुमें विद्यमान उसके अपने अनन्तधर्मोमेंसे प्रत्येक धर्म उस वस्तुमें अपने विरोधी धर्मके साथ ही रह रहा है । जैसे पटरूप वस्तुमें जिस प्रकार घटत्वधर्मका सद्भाव पाया जाता है उसी प्रकार उसमें घटत्वधर्मके विरोधी पटत्व आदि धर्मोंका अभाव भी पाया जाता है । यही कारण है कि हमें घटरूप वस्तुमें जिस प्रकार घटरूपताका ज्ञान होता है उसी प्रकार उसमें पटादिरूपताके अभावका ज्ञान होना भी स्वाभाविक हैं । अब जैसा घटरूप वस्तुमें घटरूपताके सद्भाव और पटादिरूपता के अभावका ज्ञान हमें होता है वैसा ज्ञान उस घटरूप वस्तुमें हम यदि दूसरे व्यक्तिको कराना चाहें तो इसके लिए हमें तदनुकूल वचनको या तो मुखसे उच्चरित करना होगा या फिर उसे हस्तसे लिपिबद्ध करना होगा, तब कहीं जाकर दूसरा व्यक्ति उच्चरित वचनको तो सुनकर व लिपिबद्ध वचनको पढ़कर ही घटरूप वस्तुके विषय में हमारा पूर्ण अभिप्राय जान सकेगा । चूंकि यह बात निर्विवाद है कि प्रत्येक वचन शब्दकोष, शब्दव्युत्पत्ति अथवा शब्दपरिभाषा आदिका अवलम्बन लेकर प्रतिनियत अर्थका ही प्रतिपादक होता है। इसलिये जब हम 'यह घट है' यह वाक्य बोलते हैं तो इससे लक्षित वस्तु में घटरूपताका प्रतिपादन तो हो जाता है परन्तु इससे उस वस्तुमें पटादिरूपताके अभावका प्रतिपादन कदापि नहीं हो पाता है । अतः लक्षित वस्तुमें घटरूपताके सद्भाव के साथ पटादिरूपताके अभावका प्रतिपादन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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