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________________ ४/ दर्शन और न्याय : २९ मार्ग और उसके विषयभूत सप्ततत्त्वोंका प्रतिपादन करने के लिये तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थरूप एक महावाक्यकी रचना की है तथा उल्लिखित प्रकारके पदार्थके अंशभूत एक विषयका प्रतिपादन करनेके आधारपर उसके दश अध्यायरूप दश अंश बना दिये हैं । इस तरह दश अध्यायरूप दश महावाक्योंका समुदायरूप तत्त्वार्थसूत्रग्रन्थ एक महावाक्य के रूपमें आचार्य श्री उमास्वामिके मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पदार्थका प्रतिपादन कर रहा है तथा उसके अंशभूत दशों अध्याय उस पदार्थके एक-एक अंशका प्रतिपादन कर रहे हैं। यदि दूसरा कोई व्यक्ति इन दश अध्यायोंमें वर्णित प्रत्येक अध्यायके विषयको स्वतन्त्ररूपसे पृथक्-पृथक् प्रतिज्ञात करके अलग-अलग दश ग्रन्थोंका निर्माण कर देता है तो उस हालतमें स्वतन्त्ररूपमें निर्मित वे दश ग्रन्थ अपने-अपने विषयका पूर्णरूपसे प्रतिपादन करने लगेंगे। उपयुक्त कथनसे एक बात तो यह स्पष्ट हो जाती है कि प्रयुक्त होने व पदार्थ के प्रतिपादनकी क्षमता पद, वाक्य और महावाक्यमें ही पायी जाती है व दुसरी यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पद, वाक्य और महावाक्यमेंसे पद हमेशा वाक्यका अवयव होकर ही प्रयुक्त होता है और वह हमेशा पदार्थ के अंशका ही प्रतिपादन करता है, शेष वाक्य और महावाक्य दोनों कहीं तो प्रयोक्ताके अभिप्रायके अनुसार स्वतन्त्ररूपमें प्रयुक्त होते हैं और कहीं वे प्रयोक्ताके अभिप्रायके अनुसार ही किसी अनुकूल महावाक्यके अवयवके रूप में भी प्रयुक्त होते हैं । वाक्य और महावाक्य जहाँ स्वतन्त्ररूपमें प्रयुक्त होते है वहाँ तो वे प्रयोक्ताके मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पदार्थका प्रतिपादन करते हैं और जहाँ किसी अनुकूल महावाक्यके अवयवके रूपमें प्रयुक्त होते है वहाँ वे प्रयोक्ताके उल्लिखित प्रकारके पदार्थके अंशोंका ही प्रतिपादन करते है अथवा यों कहिये कि प्रयोक्ताको जहाँ किसी वाक्य अथवा महावाक्यसे उल्लिखित प्रकारके स्वतन्त्र पदार्थका प्रतिपादन करना होता है वहाँ तो वह उनका प्रयोग स्वतन्त्र रूप में अलग-अलग ही करता है और जहाँ इनसे उल्लिखित प्रकारके पदार्थके अंशका प्रतिपादन करना ही प्रयोक्ताका लक्ष्य रहता है वहाँ वह इनका प्रयोग अनुकुल महावाक्यके अवयवके रूप में ही करता है। वचनमें अक्षर, शब्द, पद, वाक्य और महावाक्यका भेद करके जिस सांशताका विवेचन किया गया है वह सांशता जिस प्रकार ऊपर लौकिक वचनोंमें दर्शायी गयी है उसी प्रकार वह सांशता शास्त्रीय वचनोंमें भी दर्शायी जा सकती है । जैसे जैनदर्शनमें वस्तुको नित्य और अनित्य उभय धर्मात्मक माना गया है। इसके विपरीत सांख्यदर्शनमें उसे नित्यधर्मात्मक व बौद्धदर्शनमें उसे अनित्यधर्मात्मक स्वीकार किया गया है। इस तरह जैनदर्शनमें जहाँ भी 'वस्तु नित्य है' यह प्रयोग मिलता है वहाँपर वह 'वस्तु नित्य है और अनित्य है' इस महावाक्यका अवयव ही माना जाता है। यही कारण है कि उस वाक्यका हमेशा यही अर्थ होता है कि वस्तुकी द्रव्यरूपता या गणरूपता नित्य है। इसी प्रकार जैनदर्शनमें जहाँ भी 'वस्तु अनित्य है। यह प्रयोग मिलता है वहाँपर वह भी 'वस्तु नित्य है और अनित्य है' इस महावाक्यका अवयव ही माना जाता है । यही कारण है कि इस वाक्यका हमेशा यही अर्थ होता है कि वस्तुकी पर्यायरूपता अनित्य है। इस तरह जैनदर्शनमें पाये जानेवाले इन दोनों प्रयोगोंसे हमेशा यथायोग्य नित्यानित्यात्मक वस्तुको अंशात्मक नित्यता व अनित्यताका ही प्रतिपादन होता है । इसके विपरोत सांख्य दर्शनमें वस्तुको चूंकि सर्वथा नित्य माना गया है और बौद्धदर्शनमें उसे चूंकि सर्वथा अनित्य माना गया है अतः सांख्य दर्शनका 'वस्तु नित्य है' यह प्रयोग और बौद्ध दर्शनका 'वस्तु अनित्य है' यह प्रयोग एक दूसरे वचनका अवयव न होकर दोनों ही स्वतन्त्र प्रयोग सिद्ध होते हैं। अतः सांख्य और बौद्ध दर्शनोंमें पाये जानेवाले उस-उस प्रयोगसे यथायोग्य पदार्थ के रूपमें ही नित्यता अथवा अनित्यताका प्रतिपादन होता है, पदार्थ के अंशके रूपमें नहीं। ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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