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________________ २४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ अर्थात् जो जिस विषयमें अवञ्चक है यानी धोखा-धड़ी नहीं करता है वह उस विषयमें आप्त कहलाता है। इस तरह जैनदर्शनमें ऐसी ग्रन्थ-रचनाओंको भी प्रमाण माना जाता है जो विद्वान् महर्षियों द्वारा अल्पज्ञ रहते हुए भी परकल्याणभावनासे निरीहवत्तिपूर्वक की गयी हैं तथा लोकव्यवहार में उक्त राग-द्वेष और मोहसे अनाकान्त साधारण अल्पज्ञानीजनोंमें स्वीकृत आप्तता भी अपना कम महत्त्व नहीं रखती है। अर्थात् जनहितकारी उपदेशदाता या ग्रन्थकर्ता महर्षिजन व प्रशस्त लोकव्यवहारमें प्रवृत्त साधारण लौकिकजन अल्पज्ञ रहते हुए भी अपने-अपने दायरेमें आप्त अर्थात् प्रामाणिक माने जाते हैं। रत्नकरण्डकश्रावकाचार और प्रमेयरत्नमालामें आप्तके जो लक्षण बतलाये गये है उनसे ठीक विपरीत लक्षण अनाप्त पुरुषका जानना चाहिये। इसीलिये आचार्य माणिक्यनन्दिने आगामाभास (अप्रमाणरूप श्रुतज्ञान) का लक्षण बतलाते हुए 'रागद्वषमोहाक्रान्तपुरुषवचनाज्जातमागमाभासम् ।' (प० मु० ६-१५ ) में अप्रमाणरूप श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिमें निमित्तभूत पुरुषके साथ 'रागद्वेषमोहाक्रान्त' विशेषण लगाया है। इस तरह उपर्युक्त लक्षण वाले आप्तपुरुष द्वारा कहे गये या लिखे गये वचनको प्रमाणरूप और इससे विपरीत उपर्युक्त लक्षणवाले अनाप्तपुरुष द्वारा कहे गये य रीत उपर्यक्त लक्षणवाले अनाप्तपुरुष द्वारा कहे गये या लिखे गये वचनको अप्रमाणरूप जानना चाहिए। ___ इस कथनका अभिप्राय यह है कि या तो प्रमाणरूप और अप्रमाणरूप श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण होनेके आधारपर कारणमें कार्यधर्मका आरोप करनेरूप उपचारसे या फिर वचनकी उत्पत्तिमें निमित्तभूत आप्तपुरुष और अनाप्तपुरुषका कार्य होनेके आधारपर कार्य में कारणधर्मका आरोप करनेरूप उपचारसे वचनको यथायोग्य प्रमाण अथवा अप्रमाणरूप मानना चाहिये । जैनागममें वचनको परार्थश्रुत भी कहा गया है जैनागममें प्रमाणके दो भेद स्वीकार किये गये है-एक तो स्वार्थप्रमाण और दूसरा परार्थप्रमाण । साथ ही यह भी स्वीकार किया गया है कि जितना ज्ञानरूप प्रमाण है वह सब स्वार्थप्रमाण कहलाता है और जितना वचनरूप प्रमाण है वह सब परार्थप्रमाण कहलाता है। इस तरह मति, अवधि, मनःपर्यय और केवलरूप जो चार प्रमाण हैं वे अपनी ज्ञानरूपताके कारण स्वार्थप्रमाण ही हैं। लेकिन श्रुतप्रमाण चूंकि ज्ञानात्मक और वचनात्मक दोनों ही प्रकारका होता है, अतः जितना ज्ञानात्मक श्रुतप्रमाण है वह तो स्वार्थप्रमाण और जितना वचनात्मक श्रुत प्रमाण है वह परार्थप्रमाण है। ज्ञानको स्वार्थप्रमाण कहनेका अभिप्राय यह है कि उस ( ज्ञान ) का पदार्थके विषयमें अज्ञाननिवृत्तिरूप फल उस ( ज्ञान ) के आश्रयभूत 'स्व' अर्थात् ज्ञाताको प्राप्त होता है तथा वचनको परार्थप्रमाण कहनेका अभिप्राय यह है कि उसका ( वचनका ) पदार्थके विषयमें अज्ञाननिवृत्तिरूप फल उस ( वचन ) की उत्पत्तिमें निमित्तभूत वक्ता या लेखकसे भिन्न 'पर' अर्थात् श्रोता या पाठकको प्राप्त होता है । जिस प्रकार प्रमाण स्वार्थ और परार्थ के भेदसे दो प्रकारका है उसी प्रकार अप्रमाण भी स्वार्थ और परार्थके भेदसे दो प्रकारका समझ लेना चाहिये । इनमेंसे स्वार्थ अप्रमाणको उसको अपनी ज्ञानरूपताके कारण मिथ्या मतिज्ञान, मिथ्या श्रुतज्ञान और मिथ्या अवधिज्ञान रूपसे तीन प्रकारका तथा परार्थ अप्रमाणको उसकी अपनी वचनरूपताके कारण अनाप्तवचनके रूपमें एक प्रकारका जानना चाहिये। चूंकि मन:पर्ययः और केवल १. 'प्रमाणं द्विविधं स्वार्थ परार्थ च । तत्र स्वार्थं प्रमाणं श्रुतवर्ण्यम् । श्रुतं पुनः स्वार्थ भवति परार्थं च । ज्ञानात्मक स्वार्थ वचनात्मक परार्थमिति ।'-सर्वार्थसिद्धि १-६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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