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________________ ६ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ समस्त भारतीय दर्शनोंमें बीजरूपसे इस उपयोगितावादको स्वीकार कर लेने पर ये सभी दर्शन एकदूसरे दर्शनके, जो अत्यन्त विरोधी मालूम पड़ते हैं, ऐसा न होकर अत्यन्त निकटतम मित्रोंके समान दिखने लगेंगे । तात्पर्य यह है कि उल्लिखित प्रकारसे चार्वाक दर्शनमें छिपे हए उपयोगिताके रहस्यको समझ लेनेपर कौन कह सकता है कि उसका परलोकादिके बारेसे दूसरे दर्शनोंके साथ जो मतभेद है वह खतरनाक है। कारण कि जहाँ दुसरे दर्शन परलोकादिको आधार मानकर मनुष्यों के लिये योग्य कर्त्तव्यमार्गपर चलनेकी प्रेरणा करते है वहाँ चार्वाकदर्शन सिर्फ वर्तमान जीवनको सुखी बनानेके उद्देश्यसे मनुष्योंके लिये उसी योग्य कर्तव्यमार्गपर चलने की प्रेरणा करता है । तथा जब परलोक या स्वर्गादिके अस्तित्वको स्वीकार करते हये भी सर्वदर्शनकारोंको यह एक वैज्ञानिक सिद्धान्त मानना पड़ता है कि मनुष्य अपने वर्तमान जीवनमें अच्छे कृत्य करनेसे ही परलोकमें सुखी हो सकता है या स्वर्ग पा सकता है तो परलोक या स्वर्गके अस्तित्वको न मानने मात्रसे चार्वाक मतानुयायीको यदि वह अच्छे कृत्य करता है तो परलोकमें सुख या स्वर्गकी प्राप्तिसे कौन रोक सकता है ? इसी तरह नरकका अस्तित्व न मानने मात्रसे पाप करते हुए भी उसका नरकमें जाना असंभव कैसे हो सकता है ? परलोक या स्वर्गादिके अस्तित्वको न मानने वाला व्यक्ति अच्छे कृत्य कर ही नहीं सकता है, यह बात कोई भी व्यक्ति माननेको तैयार न होगा, कारण कि हम पहले बतला आये हैं कि मनुष्यका जीवन परस्परकी सद्भावना, सहानुभूति और सहायताके आधारपर ही सुखी हो सकता है। यदि एक मनुष्यको सुखी जीवन बितानेके संपूर्ण साधन उपलब्ध है और दूसरा उसका पड़ोसी मनुष्य चार दिनसे भूखा पड़ा हुआ है तो ऐसी हालतमें या तो पहले व्यक्तिको दूसरे व्यक्तिके बारेमें सहायताके रूपमें अपना कोई कर्तव्य निश्चित करना होगा, अन्यथा नियमसे दूसरा व्यक्ति पहले व्यक्तिके सुखी जीवनको ठेस पहुँचानेका कारण बन जायगा। तात्पर्य यह है कि हमें परलोककी मान्यतासे अच्छे कृत्य करनेके लिये जितनी प्रेरणा मिल सकती है उससे कहीं अधिक प्रेरणा वर्तमान जीवनको सुखी बनानेकी आकांक्षासे मिलती है। चार्वाक दर्शनका अभिप्राय इतना ही है । बौद्धोंके क्षणिकवाद और ईश्वरकतत्ववादियोंके ईश्वरकतत्वमें भी वही उपयोगितावादका रहस्य छिपा हुआ है। बौद्ध दर्शनमें एक वाक्य पाया जाता है-"वस्तुनि क्षणिकपरिकल्पना आत्मबुद्धिनिरासार्थम्" अर्थात् पदार्थोंमें जगत्के प्राणियोंके अनुचित राग, द्वेष और मोहको रोकनेके लिये ही बौद्धोंने पदार्थोकी अस्थिरताका सिद्धान्त स्वीकार किया है। इसी प्रकार जगतका कर्ता एक अनादिनिधन ईश्वरको मान लेनेसे संसारके बहुजन समाजको अपने जीवनके सुधारमें काफी प्रेरणा मिल सकती है । इस उपयोगितावादके आधार पर ही ईश्वरकतृत्वाद स्वीकार किया था। परन्तु अफसोस है कि धीरे-धीरे सभी दर्शन उपयोगितावादके मूलभूत आधारसे हटकर अस्तित्ववादके उदरमें समा गये अर्थात इन दर्शनों में जो तत्त्व उपयोगितावादके आधारपर निश्चित किये गये थे उन तत्त्वोंके बारेमें अस्तित्ववादके आधारपर विचार होने लग गया और इसका ही यह परिणाम है कि सभी दर्शनकारोंने अपनेसे भिन्न दूसरे दर्शनोंको उनकी उपयोगिताके ऊपर ध्यान न देते हये उन्हें असत्य सिद्ध करनेका प्रयास किया है। सांख्य और वेदान्त दोनों दर्शनोंकी तत्त्व-मान्यतामें उपयोगितावादकी स्पष्ट झलक दिखाई देती हैं। सांख्यदर्शनमें प्रकृतिनामका चेतनाशून्य पदार्थ और पुरुषनामका चेतनात्मक आत्मरूप पदार्थ इस प्रकार दो मल तत्त्व स्वीकार किये गये हैं। इनमेंसे प्रकृतिको एक और पुरुषको अनेक रूपमें स्वीकार किया गया है। यह एक प्रकृति अनेक पुरुषोंके साथ संयुक्त होकर पुरुषोंमें मालूम पड़नेवाले बुद्धि, अहंकार आदि नानारूपसे परिणत हो जाया करती है । इसका अर्थ यह है कि जब तक प्रकृति पुरुषके साथ संयुक्त है तब तक वह बुद्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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