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________________ ४ : सरस्वतो-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ रूप परलोक, स्वर्ग और नरक तथा मुक्तिका समर्थन करते हैं । और यदि जगतका कर्ता अनादिनिधन ईश्वर को न मानने रूप अर्थमें नास्तिक शब्दका प्रयोग किया जाय तो सांख्य और मीमांसा इन दोनों वैदिक दर्शनों को उपस्थित दर्शनोंकी कोटिमसे निकालकर नास्तिक कोटि में पटक देना पड़ेगा, क्योंकि ये दोनों दर्शन अनादिनिधन ईश्वरको जगतका कर्ता माननेसे इन्कार करते हैं। इस प्रकार ऊपर बतलाया गया सम्पूर्ण विभागक्रम अव्यवस्थित हो गया है । "नास्तिको वेदनिन्दकः” इत्यादि प्रसिद्ध वाक्य भी हमें यह बतला रहे है कि वेद परम्पराको न मानने वालोंके बारेमें ही नास्तिक शब्दका प्रयोग किया गया है। प्रायः सभी सम्प्रदायवादियोंने अपने सम्प्रदायकी परम्पराके माननेवालोंको आस्तिक और अपनेसे भिन्न दूसरे सम्प्रदायकी परम्पराके मानने वालोंको नास्तिक स्वीकार किया है । जैन सम्प्रदायमें भी जैन परम्पराके माननेवालोंको सम्यदृष्टि और जनेतर परम्पराके माननेवालोंको मिथ्यादृष्टि कहनेका रिवाज प्रचलित है। मेरे कहनेका मतलब यह है कि भारतीय दर्शनका जो आस्तिक और नास्तिक दर्शनोंके रूपमें विभाग किया गया है वह निरर्थक एवं अनुचित है। इसलिए उनका विभाग उल्लिखित वैदिक और अवैदिक दर्शनोंके रूपमें ही करना चाहिए । उल्लिखित दर्शनोंकी उत्पत्तिके बारेमें जब हम सोचते है, तो हमें इनके मलमें दो प्रकारके वादोंका पता चलता है-एक अस्तित्ववाद और दूसरा उपयोगितावाद । अर्थात् ये सभी दर्शन अस्तित्ववाद या उपयोगितावादके आधारपर प्रादुर्भूत हुए हैं, ऐसा माना जा सकता है । जगत क्या और कैसा है ? जगतमें कितने पदार्थोंका अस्तित्व है ? उन पदार्थों के कैसे-कैसे परिणाम होते हैं ? इत्यादि प्रश्नोंके आधारपर सामान्यतया तत्त्वोंका विचार करना अस्तित्ववाद कहलाता है और जगतके प्राणी दुःखी क्यों है ? वे सुखी कैसे हो सकते हैं ? इत्यादि प्रश्नोंके आधारपर सिर्फ लोककल्याणोपयोगी तत्त्वोंके बारेमें विचार करना उपयोगितावाद समझना चाहिए। तात्पर्य यह है कि अस्तित्ववादके आधारपर वे सब तत्त्व मान्यताकी कोटिमें आ जाते हैं जिनका अस्तित्व प्रमाणोंके आधारपर सिद्ध होता हो और उपयोगितावादके आधारपर सिर्फ वे ही तत्त्व मान्यताकी कोटिमें पहुँचते हैं जो लोककल्याणके लिये उपयोगी सिद्ध होते हों। मेरी रायके मुताबिक इस उपयोगितावादका ही अपर नाम आध्यात्मिकवाद और अस्तित्ववादका ही दूसरा नाम आधिभौतिकवाद समझना चाहिये । जिन विद्वानोंका यह ख्याल है कि समस्त चेतन और अचेतन जगतकी सृष्टि अथवा विकास आत्मासे मानना आध्यात्मिकवाद और उपर्युक्त जगतकी सृष्टि अथवा विकास अचेतन अर्थात् जड़ पदार्थसे मानना आधिभौतिकवाद है, उन विद्वानोंके साथ मेरा स्पष्ट मतभेद है और इस मतभेदसे मेरा तात्पर्य यह है कि आध्यात्मिकवाद और आधिभौतिकवादके उल्लिखित अर्थके मुताबिक जो वेदान्त दर्शनको आध्यात्मिक दर्शन तथा चार्वाक दर्शनको आधिभौतिक दर्शन मान लिया गया है वह ठीक नहीं है। मैंने अभारतीय दर्शनोंका तो नहीं, परन्तु भारतीय दर्शनोंका जो थोड़ा बहत अध्ययन एवं चिन्तन किया है उससे मैं इस नतीजेपर पहँचा है कि सांख्य. वेदान्त, मीमांसा, योग, न्याय और वैशेषिक ये वैदिक दर्शन तथा जैन, बौद्ध और चार्वाक ये सभी अवैदिक दर्शन पूर्वोक्त उपयोगितावादके आधारपर ही प्रादुर्भूत हुए हैं, इसलिये ये सभी दर्शन आध्यात्मिकवादके अंतर्गत माने जाने चाहिए। किसी भी दर्शनका अनुयायी आज अपने दर्शनके बारमें यह आक्षेप सहन नहीं कर सकता है कि उसके दर्शनका विकास लोककल्याणके लिए नहीं हुआ है और इसका भी कारण यह है कि भारतवर्ष सर्वदा धर्मप्रधान देश रहा है । इसलिए समस्त भारतीय दर्शनोंका मूल आधार उपयोगितावादको मानना युक्तिपूर्ण है। लोककल्याणशब्दमें पठित लोकशब्द "जगतका प्राणिसमूह" अर्थमें प्रयुक्त होता हआ देखा जाता है, इसलिए यहाँपर लोककल्याणशब्दसे "जगतके प्राणिसमूहका कल्याण" अर्थ ग्रहण करना चाहिये। कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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