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________________ १८० : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशोधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ एवं क्रियावती शक्तिके परिणमन संसारावस्थामें एक प्रकारसे तो मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय शुभ और पापमय अशुभ प्रवृत्तिरूप होते हैं। दूसरे प्रकारसे पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगप्तिके रूपमें निवत्तिपूर्वक मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिरूप होते हैं और तीसरे प्रकारसे सक्रिय मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवर्गणाके सहारेपर पुण्यरूपता और पापरूपतासे रहित आत्मक्रियाके रूप में होते हैं। इनके अतिरिक्त संसारका विच्छेद हो जानेपर जीवकी क्रियावती शक्तिका चौथे प्रकारसे जो परिणमन होता है वह स्वभावतः उर्ध्वगमनरूप होता है । जीवकी क्रियावती शक्तिके इन चारों प्रकारसे होनेवाले परिणमनोंमेंसे पहले प्रकारके परिणमन कर्मोके आस्रवपूर्वक प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप चारों प्रकारके बन्धमें कारण होते हैं। दूसरे प्रकारके परिणमन पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप होनेसे भव्यजीवमें यथायोग्य कर्मोके संवरपूर्वक निर्जरणमें कारण होते हैं व पुण्यरूप शुभ प्रवृत्तिरूप होनेसे यथायोग्य कर्मोके आस्रवपूर्वक प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप चारों प्रकारके बन्ध कारण होते है। तीसरे प्रकारके परिणमन पुण्यरूपता और पापरूपतासे रहित होनेसे केवल सातावेदनीय कर्मके आस्रवपूर्वक प्रकृति तथा प्रदेश बन्धमें कारण होते हैं और चौथे प्रकारका परिणमन केवल आत्माश्रित होनेसे कर्मोके आस्रव और बन्धमें कारण नहीं होता है और कर्मोंके संवर और निर्जरणपूर्वक उन कर्मोंका सर्वथा अभाव हो जानेपर होनेसे उसके कर्मोंके संवर और निर्जरणका कारण होनेका तो प्रश्न ही नहीं रहता है । जीवकी क्रियावती शक्तिके प्रवृत्तिरूप परिणमनोंका विश्लेषण जीवकी भाववती शक्तिके हृदयके सहारेपर अतत्त्वश्रद्धानरूप व मस्तिष्कके सहारेपर अतत्त्वज्ञानरूप जो परिणमन होते हैं उनसे प्रभावित होकर जीवकी क्रियावती शक्तिके आसक्तिवश मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन होते हैं। एवं कदाचित् संसारिक स्वार्थवश पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन भी होते हैं। इसी तरह जीवकी भाववती शक्तिके हृदयके सहारेपर तत्त्वश्रद्धानरूप और मस्तिष्कके सहारेपर तत्त्वज्ञानरूप जो परिणमन होते हैं उनसे प्रभावित होकर जीवकी क्रियावती शक्तिके एक तो अशक्तिवश मानसिक, वाचनिक और कायिक आरम्भी पापमय अशुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन होते हैं और दूसरे कर्तव्यवश मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय शुभप्रवृत्तिरूप परिणमन होते हैं । संसारी जीव आसक्ति, मोह, ममता तथा राग और द्वेषके वशीभूत होकर मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृत्तिरूप जो लोकविरुद्ध हिंसा, झूठ, चोरी तथा पदार्थों के अनावश्यक भोग और संग्रह रूप क्रियायें सतत करता रहता है वे सभी क्रियायें संकल्पी पाप कहलाती है। इनमें सभी तरहकी स्वपरहितविघातक क्रियायें अन्तर्भूत होती है। संसारी जीव अशक्ति, मजबूरी आदि अनिवार्य परिस्थितियोंवश मानसिक, वाचनिक और कायिक 'प्रवृत्तिरूप जो लोकसम्मत हिंसा, झूठ, चोरी तथा आवश्यक भोग और संग्रहरूप क्रियायें करता है वे सभी क्रियायें आरम्भी पाप कहलाती है। इनमें जीवनका संचालन, कुटुम्बका भरण-पोषण तथा धर्म, संस्कृति, समाज, राष्ट्र और लोकका संरक्षण आदि उपयोगी कार्योंको सम्पन्न करनेके लिये नीतिपूर्वक की जानेवाली असि, मषि, कृषि, सेवा, शिल्प, वाणिज्य तथा अनिवार्य भोग और संग्रहरूप क्रियायें अन्तर्भूत होती हैं। संसारी जीव जितनी परहितकारी मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रियायें करता है वे सभी क्रियायें पुण्य कहलाती है । इस प्रकारकी पुण्यरूप क्रियायें दो प्रकारकी होती है-एक तो सांसारिक स्वार्थवशकी जानेवाली पुण्यरूप क्रिया और दूसरी कतव्यवशकी जानेवाली पुण्यरूप क्रिया। इनमेसे कब्यिवशकी जानेवाली पुण्यरूप क्रिया ही वास्तविक पुण्यक्रिया है । ऐसी पुण्यक्रियासे ही परोपकार की सिद्धि होती है । इसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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