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________________ ३/धर्म और सिद्धान्त : १६७ माननेके लिये तैयार नहीं प्रतीत होता। एक ओर तो वह द्रव्यकर्मके उदयको निमित्त रूपसे स्वीकार करता है और दूसरी ओर द्रव्यकर्मोदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिपरिभ्रमणमें व्यवहारनयसे बतलाये गये निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धको अपने मूलप्रश्नका उत्तर नहीं मानता, इसका हमें आश्चर्य है। हमारे प्रथम उत्तरको लक्ष्यकर अपर पक्षकी ओरसे उपस्थित की गई प्रतिशंका २ के उत्तरमें भी हमारी ओरसे अपने प्रथम उत्तरमें निहित अभिप्रायकी ही पुष्टि की गई है। तत्काल हमारे सामने द्वितीय उत्तरके आधारसे लिखी गई प्रतिशंका ३ विचारके लिए उपस्थित है। इस द्वारा सर्वप्रथम यह शिकायत की गई है कि हमारी ओरसे अपर पक्षके मूलप्रश्नका उत्तर न तो प्रथम वक्तव्यमें ही दिया गया है और न ही इस दूसरे वक्तव्यमें दिया गया है। "संसारी जीवके विकारभाव और चतुर्गतिपरिभ्रमणमें कर्मोदय व्यवहारनयसे निमित्त मात्र है, मुख्यकर्ता नहीं" इस उत्तरको अपर पक्ष अप्रासंगिक मानता है। अब देखना यह है कि वस्तुस्वरूपको स्पष्ट करनेकी दृष्टिसे जो उत्तर हमारी ओरसे दिया गया है यह अप्रासंगिक है या अपर पक्षका यह कथन अप्रासंगिक ही नहीं, सिद्धान्तविरुद्ध है, जिसमें उसकी ओरसे विकारका कारण बाह्य सामग्री है, इसे यथार्थ कथन माना गया है। - अपर पक्षने पदमनन्दिपंचविंशतिका २३-७ का "द्वयकृतो लोके विकारो भवेत्" इस वचनको उद्धृत कर जो विकारको दो का कार्य बतलाया है सो यहाँ देखना यह है कि जो विकाररूप कार्य होता है वह किसी एक द्रव्यकी विभावपरिणति है या दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभावपरिणति है ? वह दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभावपरिणति है यह तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि दो द्रव्य मिलकर एक कार्यको त्रिकालमें नहीं कर सकते । इसी बातको समयसार आत्मख्यातिटीकामें स्पष्ट करते हुए बतलाया है। नोभौ परिणमतः खलु परिणामो नोभयोः प्रजायेत । उभयोर्न परिणतिः स्याद्यदनेकमनेकमेव सदा ॥५३॥ -त० च० पृ० ३२ इन उद्धरणोंको यहाँ प्रस्तुत करनेका प्रयोजन इन उद्धरणोंको यहाँ प्रस्तुत करनेका प्रयोजन यह है कि तत्त्वजिज्ञासुओंको यह समझमें आ जाए कि पूर्व पक्षने अपने प्रश्नोंमें जो पूछा है उसका समाधान उत्तरपक्षके उत्तरसे नहीं होता। आगे इसी बातको स्पष्ट किया जा रहा है पूर्व पक्षके उद्धरणोंसे यह स्पष्ट होता है कि वह उत्तरपक्षसे यह पूछ रहा है कि द्रव्यकर्मका उदय संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें निमित्त होता है या नहीं। स्वयं उत्तरपक्षने भी अपने तृतीय दौरके अनुच्छेदमें उस बातको स्वीकार किया है। इसलिये उत्तरपक्षको अपना उत्तर या तो ऐसा देना चाहिए था कि द्रव्यकर्मका उदय संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें निमित्त होता है। अथवा ऐसा देना चाहिए था कि वह उसमें निमित्त नहीं होता है-संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण द्रव्यकर्मके उदयके निमित्त हुए बिना अपने आप ही होता रहता है। उत्तरपक्षने प्रश्नका उत्तर यह दिया है कि "द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें व्यवहारसे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्त-कर्म सम्बन्ध नहीं है ।" त० च० पृ० १। इस उत्तरमें “व्यवहारसे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है" इस कथनका आशय यह होता है कि १. एक ओर तो वह द्रव्यकर्मके उदयको निमित्तरूपसे स्वीकार करता है ।-त० च० पृ० ३२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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