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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १६५ पुद्गलके विषयमें इतना जो विवेचन किया गया है उसका प्रयोजन यह है कि जो अणुरूप अनन्तपदगल हैं वे ही कालाणकी तरह वास्तविक द्रव्य है. अतः उनका प्रतिभासन ही केवलज्ञानमें होता पुद्गलाणुओंकी जितनी परस्पर संयुक्त या बद्ध दशाएँ हैं वे वास्तविक नहीं हैं अर्थात् उपचरित है, अतः पुद्गलाणुओंकी संयुक्त या बद्ध दशामें भी पृथक्-पृथक् पुद्गलाणका ही प्रतिभासन केवलज्ञानमें होता है । उन संयुक्त या बद्ध दशाओंका प्रतिभासन केवलज्ञानमें नहीं होता। इतना अवश्य है कि पुद्गलाणुकी संयुक्त या बद्ध दशाएँ लौकिक और आध्यात्मिक क्षेत्रोंमें उपयोगी हैं अतः उन्हें भी उपचरितरूपसे वास्तविक कहा जाता है । तथा उनका यथासम्भव प्रतिभासन भी मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें होता है व श्रूतज्ञान द्वारा उनका विश्लेषण भी होता है । यह सब विषय पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। इसप्रकार "केवलज्ञानकी विषय-मर्यादा" प्रकरणमें अब तक जो विवेचन किया गया है उससे यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि विश्वमें एक आकाश, एक धर्म, एक अधर्म, असंख्यात काल, अनन्त जीव और अनन्त पुद्गलके रूपमें जितने पृथक्-पृथक स्वतंत्रसत्ताधारी पदार्थ विद्यमान हैं वे सब पदार्थ परस्पर संयुक्त रहते हुए भी तथा जीव और पुद्गल एवं पुद्गल और पुद्गल परस्पर बद्ध रहते हुए भी अपनी-अपनी द्रव्यरूपता, गुणरूपता और स्वप्रत्यय व स्व-परप्रत्यय पर्यायरूपतामें ही रह रहे हैं, क्योंकि प्रत्येक पदार्थकी अपनीअपनी द्रव्यरूपता, गुणरूपता और स्वप्रत्यय व स्व-परप्रत्यय पर्यायरूपता संयक्त या बद्ध दशामें भी एक दूसरे पदार्थकी द्रव्यरूपता और स्वप्रत्यय व स्व-परप्रत्यय पर्यायरूपतासे भिन्न तदात्मक एकत्व प्राप्त धर्म है तथा प्रत्येक पदार्थकी ऐसी द्रव्यरूपता, गुणरूपता और स्वप्रत्यय व स्व-परप्रत्यय पर्यायरूपताका प्रतिभासन ही केवलज्ञानमें होता है। इनके लौकिक व आध्यात्मिक क्षेत्रोंमें उपयोगी होनेके कारण उपचरितरूपसे वास्तविक संयुक्त दशा या बद्ध दशाका प्रतिभासन केवलज्ञान नहीं होकर मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें ही होता है। एवं विश्लेषण श्रुतज्ञान द्वारा होता है। अतएव इस विवेचनको ध्यानमें रखकर ही कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ३२१-२२ का, पद्मपुराण सर्ग ११० के श्लोक ४० का और कविवर भैया भगवतीदासजीके "जो जो देखी वीतरागने सो सो होसो वोरा रे" इस कथनका तथा इसी प्रकारके अन्य आगम-वचनोंका अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए । ऐसा करनेसे ही वर्तमानमें जैनागमका वास्तविक रहस्य समझमें आ सकता है व सोनगढ़ द्वारा स्थापित की गयी गलत व्यवस्थाओंसे दिगम्बर जैन समाजमें जो उथल-पुथल मच गयी है वह शांत हो सकती है। इस विषयमें वर्तमान पीढ़ीके विद्वानोंका यह उत्तरदायित्व है कि वे जैन संस्कृतिके आगममें प्रतिपादित सिद्धान्तोंका निष्कषायभावसे सम्यक् उद्घाटन करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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