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________________ १६२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ पदार्थका प्रतिभासन स्वसापेक्ष होनेपर भी एक तो मात्र रूपी पदार्थका होता है। दूसरे वह प्रतिभासन द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादा लिए हुए होता है। यह बात तत्त्वार्थसूत्रके "रूपिष्वधेः" (१-२७) व "तदनन्तभागे मनःपर्ययस्य" (१-२८) दोनों सूत्रोंसे जानी जाती है । ३–यतः जीवमें केवलज्ञान समस्तज्ञानावरणकर्मका सर्वथा क्षय होनेपर प्रकट होता है, अतः निराबाध होनेसे उसमें संयुक्त या बद्धपदार्थोंका संयुक्त या बद्धरूपसे प्रतिभासन न होकर पृथक-पृथक ही होता है जबकि जीवमें मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान उस-उस ज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर प्रकट होते हैं, अतः बाधासहित होनेसे उनमें संयुक्त या बद्ध पदार्थोंका प्रतिभासन तो संयुक्त या बद्धरूपमें ही होता है व असंयुक्त व अबद्ध पदार्थोंका प्रतिभासन असंयुक्त या अबद्ध रूपमें (पृथक्-पृथकरूपमें) ही होता है। जैसे इन तीनों ज्ञानोंमें दूध और जलके मिश्रण में तो दूध और जलका मिश्रितरूपसे ही प्रतिभासन होता है और पृथक्-पृथकरूपमें विद्यमान दूध और जलका प्रतिभासन पृथक्-पृथक् ही होता है। इसी तरह अवधिज्ञान और मनःपर्यज्ञानमें दो आदि संख्यात, असंख्यात और अनन्त अणुओंके स्कन्धरूपको प्राप्त अणुओंका प्रतिभासन पिण्डरूपसे ही होता है व पृथक्-पृथकरूपमें विद्यमान अणुओंका प्रतिभासन पृथक्-पृथक् रूपसे ही होता है। इससे निर्णीत होता है कि जहाँ केवलज्ञानमें संयुक्त या बद्ध पदार्थोंका प्रतिभासन संयुक्त दशामें या बद्ध दशामें संयुक्त या बद्धरूपसे न होकर पृथक्-पृथक रूपसे होता है वहाँ मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें अपने-अपने विषयभूत संयुक्त और बद्ध पदार्थोंका प्रतिभासन पृथक-पृथकरूपसे न होकर संयुक्त और बद्धरूपसे ही होता है। यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्दने नियमसारके उपयोगप्रकरण में सभी क्षायोपशमिक ज्ञानोंको विभावज्ञानको व क्षायिकपनेको प्राप्त केवलज्ञानको स्वभावज्ञानको संज्ञा दी है। इस विषयको मैंने जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चाकी समीक्षाके प्रथम भागमें प्रश्नोत्तर-४ के प्रथम दौरकी समीक्षामें स्पष्ट किया है। पूर्वमें यह बात बतलायी जा चुकी है कि जीवमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों एकसाथ अनादिकालसे विद्यमान है । तथा किसी-किसी जीवमें मतिज्ञान और श्रतज्ञानके साथ अवधिज्ञानका या मनःपर्ययज्ञानका अथवा अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान दोनोंका भी विकास हो जाता है। परन्तु जीवमें जब केवलज्ञानका विकास होता है तब मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानका अभाव हो जाता है। इससे निम्नलिखित तथ्य फलित होते हैं १. जीवो उवओगमओ उवओगो णाणदंसणो होइ । णाणुवओगो दुविहो सहावणाणं विभावणाणंत्ति ॥१०॥ केवलमिदियरहियं असहायं तं सहावणाणंत्ति । सण्णाणिदरवियप्पे विहावणाणं हवे दुविहं ॥११॥ सण्णाणं चउभेदं मदिसुदओही तहेव मणपज्जं । अण्णाणं तिवियप्पं मदियाईभेददो चेव ॥१२॥ तह दसण उवओगी ससहावेदर-वियप्पदो दुविहो । केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहामिदि भणिदं ॥१३॥ चक्खू अचक्खू ओही तिण्णि वि भणिदं विभावदिच्छित्ति । गाथा १४ का पूर्वार्थ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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