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________________ १५८ सरस्वती वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ साधनसामग्रीका योग न प्राप्त हो तो विवक्षित कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती है। यदि उत्तरपक्ष यह कहे कि भवितव्यता के अनुसार जो कार्यकी उत्पत्ति होती है वह बुद्धि, व्यवसाय और अन्य सहायक सामग्रीकी अपेक्षाके बिना ही होती है, तो उसकी यह स्वीकृति एक तो आप्तमीमांसाकी उपर्युक्त कारिकाओंके विरुद्ध है और दूसरे वह अयुक्त भी है, क्योंकि कार्योत्पत्तिके विषय में कारणसामग्रीकी अपेक्षा कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी गाथा ३२१-२२ में व पद्मपुराण सर्ग ११० के श्लोक ४० में भी स्वीकार की गयी है। संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवोंके अनुभव, इन्द्रियप्रत्यक्ष और तर्क से भी ऐसा ही निर्णीत होता है । निष्पत्ति १. समयसार के सर्वविशुद्धज्ञानाधिकारकी गाथा ३०८ से ३११ तककी आत्मख्याति टीकाका जो कथन पूर्वमें उद्धृत किया गया है उसमें निर्दिष्ट "क्रमनियमित' शब्दका उत्तरपक्षने जो यह अर्थ समझा है कि "क्रम अर्थात् क्रमसे ( नम्वरवार) तथा नियमित अर्थात् निश्चित जिस समय जो पर्याय आनेवाली है वही आयेगी, उसमें फेर फार नहीं हो सकता ।" उसे मैं उसकी भ्रमबुद्धि का परिणाम मानता हूँ, क्योंकि प्रकरणको देखते हुए उस 'क्रमनियमित' शब्दका क्रम अर्थात् एकके पश्चात् एकरूप क्रममें नियमित अर्थात् निश्चित अर्थ ही संगत है। भाव यह है कि प्रत्येक पदार्थकी एकजातीय नाना पर्यायोंकी उत्पत्ति एकके पश्चात् एकरूप क्रमसे ही होती है, युगपत् अर्थात् एकसाथ एक ही समयमें नहीं होती । इस बातको पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है । २. केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानकी विषयताके अनुसार निर्णीत पर्यायोंकी क्रमबद्धता के आधारपर उन पर्यायोंकी उत्पत्तिको क्रमबद्ध मानना युक्त नहीं है, क्योंकि उन पर्यायों की उत्पत्ति श्रुतज्ञानके आधारपर निणांत कार्य कारणभावके आधारपर यथायोग्य क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध दोनों प्रकारसे होती है तथा श्रुतज्ञानके दलसे निर्णीत कार्य कारणभावके आधारपर क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध रूप से उत्पन्न हुई उत्पन्न हो रहीं और आगे उत्पन्न होनेवाली पर्याय केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानमें क्रमबद्ध ही प्रतिभासित होती हैं । इस विषयको भी पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। ३. कार्तिकेयानुप्रक्षाकी गाथा ३२१-२२ व पद्मपुराण सर्ग ११० के श्लोक ४० तथा अन्य आगमवाक्यों में पर्यायोंकी जिस क्रमबद्धताका विवेचन किया गया है उसका उपयोग पर्यायोंकी उत्पत्तिके विषयमें नहीं करना चाहिए क्योंकि उनका उपयोग कार्योलत्तिके लिए प्रयत्नशील जीवोंको अपने प्रयत्न में सफल होनेपर अहंकार न करने व असफल होनेपर हताश होकर अकर्मण्य न बननेके लिए करना ही उचित है । यदि कोई व्यक्ति उसका उसके अतिरिक्त अन्य उपयोग करना चाहता है तो उसका मारीच व कांजीस्वामी के समान अकल्याण होना संभव है। इस विवेचनको भी पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है । इस प्रकार प्रकृत विषयके संबंध में अबतक जो विवेचन किया गया है उससे निर्णीत होता है कि पदार्थोंकी श्रुतज्ञानके बलसे निर्णीत कार्य कारणभावके आधारपर यथायोग्य क्रमबद्ध और अक्रमबद्धरूपसे निष्पन्न हुई, निष्पन्न हो रहीं और आगे निष्पन्न होने वाली स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञान द्वारा होने वाली शप्तिको ही क्रमबद्ध स्वीकार करना उचित है। उनकी उत्पत्तिको तो श्रुतज्ञानके बलसे निर्णीत कार्य-कारणभावके आधारपर यथायोग्य क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध मान्य करना ही युक्त और कल्याणकारी हैं । मुझे इस बातका आश्चर्य है कि श्री कानजोस्वामीने अनुभव इन्द्रियप्रत्यक्ष और तर्क विरुद्ध आगमके अभिप्रायको ग्रहणकर केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानकी विषयताके आधारपर निर्णीत पर्यायोंकी क्रमबद्धताका Jain Education International 7 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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