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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १३१ के परिणमन स्वरूप संकल्पी पापरूप आचरण होता ही रहता है। अतः उस आचरणके आधार पर वह जीव अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ आदि २५ प्रकृतियों का बन्ध अवश्य करता है । तृतीय और चतुर्थं गुणस्थानोंमें स्थित जीवोंमें नियमसे अप्रत्याख्यानावरणकर्मका उदय रहता है, अतः उस उदयमें उक्त दोनों गुणस्थानवर्ती जीव निमित्तों के सहयोगसे अपनी क्रियावतीशक्तिके परिणमन स्वरूप जो आचरण करते हैं वह अशक्तिवश होनेवाला आरम्भो पाप है व उसीका नाम अविरति है । वह अविरति तृतीयगुणस्थानवर्ती जीवमें दर्शनमोहनीयकर्मकी सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयमें नोकर्मोंके सहयोगसे जीवको भाववतीशक्ति के परिणमन स्वरूप जो सम्यग्मिथ्यात्वरूप मिश्रभाव होता है उसके अनुसार ही कर्मबंधका कारण होती है तथा चतुर्थगुणस्थानवर्ती जीवमें यतः दर्शनमोहनीयकर्मकी मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप तीन और अनन्तानुबंधोकर्मकी क्रोध, मान, माया और लोभरूप चार इन सात प्रकृतियों का उपशम, क्षयोपशम या क्षय विद्यमान रहता है, अतः वह अविरति उन कर्मों के sarat अपेक्षा बिना ही कर्मबन्धका कारण होती है । यही कारण है कि जहाँ तृतीयगुणस्थानवर्ती जीव ९८ प्रकृतियों का बन्ध करता है वहाँ चतुर्थगुणस्थानवर्ती जीव तीर्थंकर, मनुष्यायु और देवायुके साथ उन ९८ प्रकृतियों का बन्ध करता है । तृतीयगुणस्थानवर्ती जोवमें तीर्थंकर, मनुष्यायु और देवायु इन प्रकृतियोंका FE इसलिए नहीं होता कि कर्मसिद्धान्तमें इस गुणस्थानमें उनके बन्धका निषेध किया गया है और चतुर्थ - गुणस्थानमें इसलिए उनका बन्ध होता है कि कर्मसिद्धान्त में उसमें इन प्रकृतियोंके बंधका विधान किया गया है । तीर्थंकरप्रकृतिका बंध चतुर्थ गुणस्थान में इसलिए होता है कि उसका बंध कर्मसिद्धान्त के अनुसार निश्चयसम्यग्दृष्टि जीवके ही होता है । पंचम गुणस्थानवर्ती जीवमें अप्रत्याख्यानावरण कर्म के क्षयोपशमके साथ प्रत्याख्यानावरणकर्मका उदय रहता है, अतः वहाँ उस उदयमें नोकर्मोंके सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रियावतीशक्तिकी परिणतिस्वरूप एकदेश अविरति ही बन्धका कारण होती है । षष्ठ गुणस्थानवर्ती जीवमें अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण दोनों कर्मोंके क्षयोपशमके साथ संज्वलन कषायका तीव्रोदय रहता है । अतः उस उदयमें नोकर्मोंके सहयोगसे जीवकी क्रियावतीशक्तिका प्रमादरूप परिणाम ही बन्धका कारण होता है । सप्तम गुणस्थानसे लेकर दशम गुणस्थान तकके जीवोंमें संज्वलनकषायका उत्तरोत्तर मन्द मन्दतर और मन्दतमरूपसे उदय रहता है और उस उदयमें नोकमोंके सहयोगसे अव्यक्तरूपमें जीवकी क्रियावतीशक्तिका जो परिणाम होता है वही वहाँ बंधका कारण होता है । इस प्रकार प्रथम गुणस्थानसे लेकरके षष्ठ गुणस्थानतक होनेवाला यथायोग्य मिथ्यात्वरूप, अविरतिरूप, एकदेश अविरतिरूप और महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूप जीवकी क्रियावतीशक्तिका जो व्यक्तरूपमें परिणमन होता है वह परिणमन कर्मो के प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप चारों बंधोंका कारण होता है । तथा सप्तम गुणस्थान से लेकर दशम गुणस्थानतकके जीवोंमें जीवकी क्रियावतीशक्तिका जो अव्यक्तरूपमें परिणमन होता है वह भी कर्मों प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग इन चारों प्रकारके बंधोंका कारण होता है क्योंकि ये सभी परिणाम यथायोग्य उस-उस कषायके उदयमें होनेवाले जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमन राग-द्वेषरूप कषायभावसे प्रभावित रहते हैं । ११वें, १२ वें और १३ वें गुपस्थानोंमें जीवकी क्रियावतीशक्तिका योगरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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