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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १२९ करता है, अन्यथा नहीं । इतना उल्लेखयोग्य है कि मिथ्यात्वकर्मके उदयमें मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध न होते हुए भी जो उसका उदय रहता है उसका कारण पूर्व में बद्ध मिथ्यात्वकर्मकी सत्ता है । स्थितिबंध और अनुभागबंधको व्यवस्था अभी तक जितना विवेचन किया गया है उससे स्पष्ट है कि बन्धका मूल कारण नोकर्मों के सहयोगसे होनेवाला जीवकी क्रियावतीशक्तिका हलन-चलन-क्रियाव्यापाररूप योग ही है। यतः वह योग प्रथम गुणस्थानसे लेकर त्रयोदश गुणस्थान तकके जीवोंमें प्रतिक्षण यथायोग्यरूपमें होता रहता है, अतः कर्मबन्ध भी उन सभी जीवोंमें प्रतिक्षण होता रहता है और वह प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धके रूपमें दो प्रकार का होता है। आगममें बतलाया गया है कि कर्मबन्ध प्रकृतिबंध और प्रदेशबंधके अलावा स्थितिबंध और अनुभागबंधरूप भी होता है, अतः कर्मबंधके प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके रूपमें चार भेद माने गये हैं। ___कर्मबन्धका जीवके साथ यथायोग्य नियतकाल तक बना रहना स्थितिबन्ध है और कर्मोंमें जीवको फल देनेकी शक्तिका विकास होना अनुभागबंध है। जिस प्रकार प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबंध ये दोनों योगके आधारपर होते हैं उसी प्रकार स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध ये दोनों कषायके आधारपर होते हैं । इनका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है : मोहनीयकर्म के आगममें दो भेद कहे गये है-१. दर्शनमोहनीय और २. चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीयकर्मके तोन भेद हैं १. मिथ्यात्व २. सम्यग मिथ्यात्व और ३. सम्यक्त्वप्रकृति। चारित्रमोहनीयकर्मके दो भेद है-१. कषायवेदनीय २. अकषायवेदनीय । कषाय-वेदनीयकर्मके मूलतः चार भेद--१. क्रोध २. मान ३. माया ४. लोभ । ये चारों अन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलनके रूपमें चारचार प्रकारके है । तथा इनके उदयमें नोकर्मोंके सहयोगसे कर्मबन्धके कारणभूत एवं जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप कषायभाव होते हैं तथा वे यदि क्रोध या मानरूप हों तो उन्हें द्वष कहते हैं और यदि माया या लोभरूप हों तो उन्हें राग कहते हैं। इस प्रकार कर्मोके स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके कारण यथायोग्य नोकर्मोकी सहायतापूर्वक होनेवाले जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमन राग और द्वेषरूप कषायभाव ही है। आगममें अकषायवेदनीय-चारित्रमोहनीयकमके जो हास्य, रति. अरति. शोक भय. जगप्सा. स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसक वेद ये नौ भेद कहे गये हैं उन्हें राग और द्वेषरूप कषायभावोंके सहायक कर्म जानना चाहिए। कर्मबन्धकी प्रक्रिया मिथ्यात्वकर्मके उदयमें मिथ्यादष्टिनामधारी प्रथमगणस्थानव जीवको भाववतोशक्तिके यथायोग्य नोकर्मों के सहयोगसे व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञानरूप परिणमन होते हैं व उनके होनेपर यथायोग्य नोकर्मोके सहयोगसे ही उसको क्रियावतीशक्तिका मिथ्या-आचरण (मिथ्याचारित्र) रूप परिणमन होता है, जो कर्मबन्धका कारण होता है। यतः वह मिथ्या आचरण अनन्तानुबन्धी कर्मके उदयमें होनेवाले जीवकी भाववतोशक्तिके परिणमनस्वरूप राग व द्वेषरूप कषायभावोंसे प्रभावित रहता है, अतः उस आचरणके आधारपर कर्मोके प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धके साथ स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध भी होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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